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प्रवचनसार-सप्तदशाङ्गी टीका
स्यात् स शुभोपयोगिनः स्वशक्त्या प्रतिधिकोष प्रवृत्तिकालः । इतरस्तु स्वयं शुद्धात्मवृत्तेः समfarnata केवलं निवृत्तिकाल एव || २५२ ||
साधुः प्रथमा एक परिवज्जद् प्रतिपद्यताम् - आज्ञार्थी अन्य एक क्रिया । आदससीए आत्मशक्त्यातृतीया एकवचन । निरुक्तिक्षुवनं क्षुधा (क्षु विव टापू ), वर्षणं तृषा (तृप् + न + टाप्) जिपिपासायां । आत्मनः आत्मशक्ति तथा आत्मशक्त्या ॥२५०
तृषा
रोगादिक कोई उपसर्ग या पड़े तो वह काल शुभोपयोगीका स्वशक्त्यनुसार प्रतीकार करने की इच्छारूप प्रवृत्तिका काल है । (२) उस प्रवृत्ति काल में निश्चयतः प्रतीकार करने की इच्छा व योग चल रहा है, व्यवहारतः रोगादिक उपसर्गको दूर करनेका प्रयत्न चल रहा है । (३) जब श्रम पर कोई रोगादिक उपसर्ग नहीं है तो वह स्वयंको शुद्धात्मवृत्ति पानेके लिये केवल निवृत्तिकाल है ही । (४) साधु जब श्रमको रोग क्षुत्रा तृषा व श्रम से प्राक्रान्त देखे तब वह श्रात्मशक्त्यनुमार विधिसहित मनसे वाचनिक व कायिक भैयावृत्य करे, इस परिस्थितिके अतिरिक्त अन्य काल निवृत्तिका है सो ग्रात्मध्यान में परमात्मध्यान में रहे ।
सिद्धान्त - १- शुभोपयोगी श्रम अनुकम्पापूर्वक परोपकाररूप प्रवृत्तिका भाव होने से वैयावृत्यादि कार्य करता ही है ।
दृष्टि- १- क्रियानय (१६३) ।
प्रयोग - शुद्धात्मवृतिको प्रोर अभिमुख रहने वाले साधकोंपर रोगादिक आये तो शुद्धात्मवृत्ति की रक्षा के लिये उनकी आत्मशक्त्यनुसार सेवा करना ॥ २५२ ॥
अब लोगों के साथ बातचीत करनेको प्रवृत्तिको उसके निमित्तके विभाग सहित बतलाते हैं - [वा ] श्री [ग्लानगुरुबालवृद्धश्रमरणानाम् ] रोगी, गुरु, बाल तथा वृद्ध श्रमणोंकी [वैयावृत्यनिमित्त ] सेवा के निमित्त [ शुभोपयुता ] शुभोपयोगयुक्त [ लौकिकजनसंभाषा ] लोकिक जनोंके साथ की बातचीत [न निन्दिता ] निन्दित नहीं है ।
तात्पर्य - रोगी ग्रादि सेव्य श्रमरणोंकी सेवा के निमित्त लौकिक जनोंके साथ शुभोपयुक्त संभाषण निषिद्ध नहीं है ।
टोकार्थ- शुद्धात्मपरिपत्तिको प्राप्त रोगी, गुरु, बाल और वृद्ध श्रमणको सेवाके निमित्त ही शुद्धात्मपरिणतिशून्य लोगोंके साथ बातचीत प्रसिद्ध है, किन्तु अन्य निमित्तसे भी प्रसिद्ध हो ऐसा नहीं है ।
प्रसंगविवरण - अनन्तरपूर्व गाथा में शुभोपयोगी श्रमणोंकी प्रवृत्तिका काल बताया गया था। अब इस गाथा में बताया गया है कि शुभोपयोगी श्रमणकी लोगोंसे संभाषण करने