Book Title: Pravachansara Saptadashangi Tika
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

View full book text
Previous | Next

Page 491
________________ प्रवचन सार-सप्तदशाङ्गी टीका अथ प्रवृतविषयविभागे दर्शयति-- जोण्हागणं शिरवेक्खं मागारणगारचरियजुतागां । अणुकंपयोवणारं कुव्वद लेवो जदि वि अप्पो ॥२५१ ॥ अल्प लेन होते गो, श्रावक मुनिषद चरित्रयुक्तोंका । शुद्ध लक्षा नहि तजकर, हो निरपेक्ष उपकार करो ॥२५१ ।। जनानो निरपेक्षा सामागाकारवयातानाम। अनुकम्पयोपकारं करोतु लेपो बया: |! २५.१ ।। __ या किलानु माविका परोपकारलक्षणा प्रवृत्तिः सा ग्ल्याने काममंत्रो विनिमय शुद्धेषु जमे शुद्धात्मनान वानप्रवल तितका साकारानाकारचर्याशुक्नेषु शुहागारबारसकाल. निरपेक्षतर्थवाल्पाले हायप्रतिषिद्धा न पुतराले पेति सर्वत्र मर्ग वाप्रतिषिद्धा, नवनयापकयाशुद्धात्मवृत्तियागम्य परामनारनुपपत्तरिति ॥२५ १।। । नामसंज्ञ जोगह शिरदेवख सागारागारचरियजुत्त अर] कंपा उबयार लेव अदिवि अग्ण । बाजुसंशकुब्ध करणे। प्रातिपदिक-जन निरपेक्ष साकारानाकारचर्यायुक्त अनुकम्पा उपकार लेग यदि अपि अल्प । मूलधातु... ऋज कर । उभयपदविवरण- पहाणं जनानां सागरणगार परियनुत्ताणं शाकारानाकारचर्यायुवतानां-गाठी बहु । णिवेचवं निरपेक्ष उवगार उपकार-द्वितीया एक० । अस्या अनुकम्पया-तृतीया एक । न्यायद नरोत-आजाथै अन्य एकल त्रिया । लेपो लेत: अ अ...प्रथमा एक० । जदि यदि वि अगि-अव्यय । निरुक्ति..... लिप्यले असौ लेप: लेप गतौ भ्वादि । समास..... सकारा च अनाकोरा चेति साकाराताकारे साकारानाबारे हामी चर्ये इति साकारानाभरिचय तान्यां सुनतः साकारानाकार चर्यायुवतः ।।२५१।। प्रसङ्गविधारण-अनन्तरपूर्व पाथामें संयमको घात न करने वाली हो प्रवृत्ति शुभोपयोगियोंकी बताई गई थी : अब इस गाथामें प्रवृत्तिका विषय दिखाया गया है। तथ्यप्रकाश..... १ - यद्यपि अनुकम्पापूर्वक परोपकाररूप प्रवृत्ति से प्रला लप होता है तथापि शद्ध जिन मनियाथियोंके प्रति द्धात्मोपलब्धिको अपेक्षा की जाती है तो वह प्रवृत्ति निषिद्ध नहीं है । २-- जिनका चित्त अनेकान्त के साथ मंत्री द्वारा पवित्र हुi शुद्धात्माको जान दर्शन रूप चर्या वाले हैं वे शुद्ध जिनमार्गानुयायी हैं। ३- ''अनुपामा परोपकारस्वरूप प्रवृत्ति में आल्प ही तो लेप होता है" ऐसा सोचकर कोई सबके प्रति सब प्रकार ही प्रवृत्ति अप्रतिषिद्धः समझे सो ठीक नहीं हैं। ४- शुद्ध जिन बिनिदिष्ट मान यायियों के अतिरिक्त अन्यके प्रति ब शुद्धात्मोपलब्धिके अतिरिक्त अन्य अपेक्षासे प्रवृत्ति करना शुओपयोगी श्रमणोंके लिये निषिद्ध है, क्योंकि इस तरहको प्रवृत्ति परको या निजको शुद्धात्मवृत्तिकी रक्षा नहीं बनती।

Loading...

Page Navigation
1 ... 489 490 491 492 493 494 495 496 497 498 499 500 501 502 503 504 505 506 507 508 509 510 511 512 513 514 515 516 517 518 519 520 521 522 523 524 525 526 527 528