________________
OTHER
४७४
सहजानन्दशास्त्रमालायां
अथ सर्वा एव प्रवृत्तयः शुभोपयोगिनामेब भवन्तीत्यवधारयति
उचकुणदि जो वि णिच्चं चादुव्वगण स समसंघस्स । कायविराधणरहिदं सो वि सरागप्पधाणो से ॥ २४६ ।।
चतुविध श्रमसंघों का जो उपकार नित्य करता है ।
कायविराधनविरहित, वह साधु शुभोपयोगी है ॥२४६।। उपकरोति योऽपि नित्यं चातुर्वर्णस्य थमणसंघस्य । कायचिराधनरहितं सोऽपि सरागप्रधानः स्यात् ।२४६।
प्रतिज्ञातसंयमत्वात्षट्कायविराधनरहिता या काचनापि शुद्धात्मवृत्तित्राणनिमित्ता चातुर्वर्णस्य श्रमणसंघस्योपकारकरणप्रवृत्तिः सा सर्वापि रागप्रधानत्वात् शुभोपयोगिनामेव भवति न कदाचिदपि शुद्धोपयोगिनाम् ।।२४६।।
।
S
नामसंज्ञ-ज वि णिच्चं चादुव्बष्ण समणसंघ कायविराधणरहदि त वि स रागप्पधाण । धातुसंजउद कुण करणे, अस सत्तायां । प्रातिपदिक-यत् अपि नित्यं पातुर्वण श्रमण संघ कायविराधणरहित तत अगि मशगप्रधान । मलधान-उप इकत्र करणे, अस भुवि । उभयपदविवरण-उवाद उपकरोतिवर्तमान अन्य एक० क्रिया। जो यः सो सः सरागप्पधाणो सरागप्रधान:-अथमा एकवचन । वि अपि णिसचं नित्यं--अध्यय । चादुबण्णस्य चातुर्वर्णस्य समणसंधस्स श्रमणसंघस्य--पाठी एकवचन | कायबिराधणरहिद कायविराधमरहित-क्रियाविशेषण । से स्यात-विधी अन्य पुरुष एकवचन किया निरुक्ति-- सं हननं संघः (संहनु । अच) उपसर्गादर्थपरिवर्तनम् । समास-श्रमणानां संध: थमणसंघः तस्य श्र०, कायस्य विराधनं कायविराधनं तेन रहितं का० ।।२४६।।
प्रसङ्गविवरण–प्रनन्तरपूर्व गाथामें कहा गया था कि ऐसी प्रवृत्तियाँ शुभोपयोगियों के ही होती हैं । अब इस गाथामें सारी हो ये प्रवृत्तियां शुभोपयोगियोंके ही होती है ऐसा सुनिश्चित किया है।
तथ्यप्रकाश --- (१) शुभोपयोगी श्रमणने संयमकी प्रतिज्ञा की थी सो उसकी जितनी प्रवत्तियां होती हैं वे सब पटकायके जीवोंकी विराधनासे रहित होती है । (२) शुभोपयोगी श्रमणको जो श्रमणसंधके उपकार मैयादृत्य करनेकी प्रवृत्ति है सो शुद्धात्मवृत्तिके रक्षाके निमित्त होती है । (३) श्रमणसंघका उपकार करने वाली सारी प्रवृत्ति शुभोपयोगियोंके ही होती है, क्योंकि वे शुभरागप्रधान है । (४) ऋषि यति मुनि व अनगार इन श्रमणोंके समूह को श्रमणसंघ कहते हैं । (५) किसी भी प्रकारको ऋद्धिको प्राप्त श्रमण ऋषि कहलाते हैं । (६) विशेष ज्ञानो श्रमण मुनि कहलाते हैं । (७) शुद्धोपयोगकी विशेषताको प्राप्त अथवा उपशमक क्षपक श्रेरिणमें प्रारूढ़ श्रमणको मुनि कहते हैं । (८) सामान्य साधु अनगार कहलाते हैं । (8) सरायचर्या शुद्धोपयोगियोंके कभी भी नहीं हो सकती, क्योंकि शुद्धोपयोगी श्रमण