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सहजानन्दशास्त्रमालायां
पादकेषु प्रवचनाभियुक्तेषु च भक्त्या वत्सलतया च प्रचलितस्य तावन्मात्ररागप्रबर्तित परद्रव्यप्रवृत्तिसंवलितशुद्धात्मवृत्तेः शुभोपयोगि चारित्रं स्यात् । अतः शुभोपयोगिश्रमणानां शुद्धात्मानुरागयोग चारिवलक्षणम् ॥ २४६ ॥
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शुभयुक्ता चर्या । मूलधातुविद सत्तायां, भू सत्तायां । उभयपदविवरण- अरहंतादिसु अर्हदादिषु पवराणाभिजुत्सु प्रवचनाभियुक्तेषु सप्तमी बहुवचन । भक्ती भक्तिः वच्छलदाखलता सुहजुला शुभयुक्ता चरिया चर्या सा-प्रथमा एकवचन । विज्जदि विद्यते वर्त० अन्य० एक० क्रिया । जदि यदि - अव्यय । साभण्णे श्रामध्ये - सप्तमी एकवचन । भवे भवेत् विधी अन्य० एक० क्रिया । निरुक्तिवाद व्यक्तायां राचि रम्यं वदति इति वत्सः (वद + स वत्से स्नेहाल इति वत्सलः तस्य भावः वत्सलता | समास - (प्रवचने अभिसुताः प्रवचनाभियुक्ता तेषु प्र०, शुभेन युक्ता शुभयुक्ता ॥ २४६ ॥
केवल शुद्धात्मपरिणतिरूप से रहने में स्वयं प्रशक्त पररूप केवल शुद्धात्मपरिणतरूपसे रहने वाले अर्हन्तादिक तथा केवल शुद्धात्मपरिणतरूपसे रहनेका प्रतिपादन करने वाले प्रवचनरत जीवोंके प्रति भक्ति तथा वात्सल्यके द्वारा प्रचलित भ्रमणके मात्र उतने रागसे प्रवर्तमान पर द्रव्यप्रवृति के साथ शुद्धात्मपरिणति मिलित होनेसे, शुभोपयोगी चारित्र है । इस कारण शुद्धामाका अनुरागयुक्त चारित्र शुभोपयोगी श्रमणों का लक्षण है ।
प्रसंग विवरण - अनन्तरपूर्व गाथामें शुद्धोपयोगी व शुभोपयोगी दो प्रकारके श्रमण कहे गये हैं । श्रब इस गाथामें शुभोपयोगी श्रमणका लक्षण सूचित किया गया है ।
तथ्यप्रकाश - (१) शुद्धात्मपरिणति परद्रव्यप्रवृत्तिके साथ मिलित हो तो वह शुभोपयोगी चारित्र कहलाता है । (२) श्रम के समस्त परिग्रहके त्यागरूप श्रामण्य है तथापि कषायकणके प्रवेशव शुद्धात्मवृत्तिमात्रसे नहीं रह पाता है । (३) जब भ्रमण शुद्धात्मवृत्ति मात्र ( मात्र ज्ञाता द्रष्टा रहने रूप) नहीं रह पाता तो वह शुद्धात्मवृतिमात्रसे रहने वाले अरहन्त श्रादिकों की भक्तिरूप उपयोग करता है । ( ४ ) शुद्धात्मवृत्तिमात्र से न रह पानेपर श्रमण शुद्धात्मवृत्तिमात्र अवस्थितिके प्रतिपादक प्रवचनरत गुरुयोंको भक्ति व वात्सल्य व सेवा भी करता है । (५) शुभोपयोगी श्रमणों का शुद्धात्मानुरागयोगि चारित्र होता है ।
सिद्धान्त -- ( १ ) शुद्धात्मपरिणतिमिलित परद्रव्यप्रवृत्त उपयोग शुभोपयोगी चाfte कहलाता है ।
दृष्टि - १- क्रियानय ( १६३) ।
प्रयोग — शुद्धोपयोगवृत्ति न रह पानेपर शुद्धात्मावोंके व शुद्धात्मत्वसाधकोंके प्रति अनुराग भक्ति वत्सलतारूप शुभोपयोग करना ॥ २४६ ॥
श्रव शुभोपयोगी श्रमणोंकी प्रवृत्ति दिखलाते हैं [ श्रमणेषु ] श्रमणोंके प्रति [वन्द