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प्रवचनसार-सप्तदशांगी टीका
श्रथ शुमोपयोगिश्रमरपल क्षणमासूत्रयति-
अरहंतादि भक्ती वच्छलदा पवयणाभिजुत्तेसु । विज्जदि जदि सामण्णा सा सुहजुत्ता भवे चरिया ॥ २४६॥
सिद्ध जिनोंमें भक्तो, प्रवचन श्रभियुक्तमें सुवत्सलता ।
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श्रामण्यमें यदी हों, वह ही शुभयुक्त चर्या है ॥२४६ ॥
दाद सिलता प्रवचनाभियुक्तेषु । विद्यते यदि श्रामण्ये सा शुभयुक्ता भवेच्चर्या ॥ २४६ ॥ सकलसंगान्यासात्मनि श्रामण्ये सत्यपि कषायलवावेशवशात् स्वयं शुद्धात्मवृत्तिमात्रपावस्थातुमशक्तस्य परेषु शुद्धात्मवृत्तिमात्रेणामस्थितेष्वदादिषु शुद्धात्मवृत्तिमात्रावस्थितिप्रति
नामसंज्ञ अहंवाद भत्ति वच्छलदा पवयणाभिजुत जदि सामण्ण त सुहजुत्ता चरिया । श्रातुसंज्ञ-भव सत्तायां विज्ज सत्तायां । प्रातिपदिक-अर्हदादि भक्ति वत्सलता प्रवचनाभियुक्त यदि श्रामण तत्
परिसात आत्मा शुभयोग से युक्त रहता है तो वह मरण कर स्वर्गादि सुखको प्राप्त होता है. इससे सिद्ध है कि शुभोपयोगी श्रमण भी धर्ममार्ग में है । ( ६ ) शुभपयोगका धर्म के साथ एकार्थसमवाय है, इस कारण शुभोपयोगी भी श्रमण हैं । (७) शुभोपयोगी श्रमण शुद्धोपयोगी श्रम से नीचे हैं, क्योंकि शुद्धोपयोगी श्रमण कषाय दूर कर देनेसे निरास्रव हैं, शुभोपयोगी श्रमण कषायक सद्भाव के कारण सासव हैं । ( ८ ) शुभोपयोगी श्रम भी सावन में है, अतः वह भी श्रमण ही हैं ।
सिद्धान्त - ( १ ) शुभोपयोग में सहज शुद्ध प्रन्तस्तत्त्व की प्रतीति युक्त श्रमण अन्तः आत्मतत्त्वको साधना कर रहा है ।
दृष्टि - १ - क्रियानय ( १९३ ) |
प्रयोग - शुद्धोपयोगी होनेके प्रधान पौरुषको विधेयता समझते हुए कषायकप्रेरणा को स्थितिमें शुभोपयोगी होना ॥ २४५ ॥
अव शुभोपयोगी श्रमणका लक्षण श्रासूत्रित करते हैं - [ श्रामण्ये ] मुनि अवस्था में [ यदि ] यदि [ श्रदादिषु भक्तिः ] श्रन्तादिके प्रति भक्ति तथा [ प्रवचनाभियुक्तेषु वत्सलता ] प्रवचनरत जीवोंके प्रति वात्सल्य [विद्यते ] पाया जाता है तो [सा ] वह [ शुभयुक्ता चर्या ] शुभयुक्त वर्या अर्थात् शुभोपयोगी चारित्र [ भवेत् ] है ।
तात्पर्य - प्रर्हन्तादि में भक्ति व सहधर्मियों में वात्सल्य करने वाला मुनि शुभोपयोगी
टोकार्थ- सकल संगके सन्यासस्वरूप श्रामण्य के होनेपर भी कषायशिके प्रवेश के