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प्रवचनसार-सप्तदशांगी टोका अथ शुभोपयोगप्रज्ञापनम् । तत्र शुभोपयोगिनः श्रमरणत्वेनान्वाचिनोति--
समणा सुदधुवजुत्ता सुहोवजुत्ता य होत्ति समयम्हि । तेमु वि मधुवजुत्ता प्रणा सवा सासवा सेसा ॥२४॥
श्रमरण शुद्धोपयोगी, शुभोपयोगी कहे जिनागममें ।
किन्तु शुद्धोपयोगी, अनास्रवो शेष सास्रव हैं ।। २४५ ॥ श्रमणा: मुलं पता: भोगयुक्तापच भवन्ति समये : पचपि मुझोपयुक्ता अनानवाः मानवाः शेषः १२४.।
ये महल श्रामपरिवाति प्रनिनामानि जोदितनपाय करतया समस्तपरद्रव्यानिवृत्ति प्रत. तमुबिशन निस्विभायात्ममात्तिम्यां गद्धोपयोगभूमिकामधिरोढुं न अमले इ ने नय
नामसन--गम बजन मुहोबजुत य समय त । मुद्धबहुत अणासव मेस सासव ! धातुमंज --हो सत्तायां 1 प्रातिपदिक- श्रमण मद्धोपयुक्त भोपयुक्त समय तत् अपि शुद्धोपयुक्त अनास्त्र सामव शेप। संयतपना व प्रामज्ञान इन भारोका योगपद्य, सर्वत्रसाम्य, ज्ञानात्मकस्वसंवेदन, एकानप, श्रामग्य व शुद्धोपयोग यह एकार्थकभाव मोक्षमार्ग है ऐसा मोक्षमार्गका प्रज्ञापन किया गया
सिद्धान्त-(१) शुद्ध प्रात्मतत्त्वकी भावनाके कारण स्वयं ही कर्मोंसे छुटकारा प्राप्त हो जाता है।
दृष्टि ---- १- शुद्धभावनापेक्ष मृद्ध द्रव्यापिकन य (२४८) ।
प्रयोग–कोसे व संसारसंकटों से छुटकारा पाने के लिये पदार्थोमें न मोह करना न राग करना, न द्वेष करना ।।२४४।।
इस प्रकार मोक्षमार्ग-प्रज्ञापन समाप्त हुआ।
अब शुभोपयोगका प्रज्ञापन करते हैं। उसमें प्रथम शुभोपयोगियोंको श्रम रूपमें गीण तया बतलाते हैं-समये] परमागम में श्रमणाः] श्रमरा शुद्धोपयुक्ताः शुद्धोपयोगी चि शुभोपयुक्ताः भवन्ति] और शुभोपयोगी होते हैं [तेषु अपि उनमें भी [शुद्धोपयुक्ताः अना. सवाः] शुद्धोपयोगी निरस्रव हैं, [शेषाः सात्रवाः] शेष सारव हैं अर्थात् शुभोपयोगी पात्रक. साहित हैं।
तात्पर्य -... शास्त्रमें शुभोपयोगी ब शुखोपयोगी दोनोंको श्रमण कहा गया है ।
टीकार्थ-----जो वास्तव में श्रामण्यपरिमतिको प्रतिज्ञा करके भी, कषाय करण के जीवित होनेसे , समस्त इरद्रन्यसे निवृत्तिरूपसे प्रवर्तमान सुविशुद्ध दर्शन ज्ञान स्वभाव प्रात्मतत्व में परिणतिरूप शुद्धोपयोगभूमिकामें प्रारोहण करनेको समर्थ नहीं हैं; वे जीव शुद्धोपयोगभूमिकाके