________________
४५३
प्रवचनसार--सप्तदशाङ्गी टीका प्रथागमज्ञानतरवार्थश्रद्धानसंयतत्यानां योगपछऽध्यात्मज्ञानस्य मोक्षमार्गसाधक्तमत्वं द्योतयति
जं अण्णाणी कम्मं स्वधेदि भवसयसहस्सकोडीहिं। तं णाणी तिहिं गुत्तो खवेदि उस्सासमेत्तेण ॥२३८॥ प्रज्ञ जन कम जितने, करोड़ भवमें दिनष्ट कर पाता।
विज्ञ जन कर्म उत्तने, त्रिगुप्त हो छिनको नशता ॥२३॥ र मदज्ञानी कर्म क्षपति भवशतसहस्रकोटिभिः। तज्ज्ञानी विभिगुप्तः क्षययत्युक्छवासमात्रेण ।। २३८ ।।
यदज्ञानी कर्म क्रमपरिपाट्या बालतपोवैचित्र्योपक्रमेण च पच्य मानमुपात्तरागद्वेषतथा सुखदुःखादिविकारभावपरिणतः पुनरारोपितसंतानं भवशतसहस्रकोटिभिः कथंचन निस्तरत्ति, .. नामसंज्ञ--ज अण्णाणि काम्म भवसयसहस्रकोडि त णाणि ति गृत्त उस्सासमेत ! धातुसंज्ञ-खव क्षयकरणे । प्रातिपदिक-यत् अज्ञानिन् कर्मन् भवशतसहस्रकोटि तत् ज्ञानिन् वि गुप्त उच्छवासमात्र । मूलधातु-क्षपि क्षयकरणे चुरादि । उभयपदविवरण-जं यत् कम्मं धर्म-द्वितीया एक० । खवेदि क्षपति-- वर्तमान अन्य पुरुष एकवचन क्रिया । भवसयसहस्सकोडीहिं भवशतसहस्रकोटिभिः--तृतीया बहु । तं तत्वहाँ संयम कैसे हो सकता है । १० वासनारहित अविकार निष्कम्प एक ज्ञानाकारस्वरूप अन्तस्तत्वमें चित्तिका लीन विलीन होना संयम है। ११-- जिस अात्मामें स्वैरिणी चिति उछल कूद कर रही है उस प्रात्मामें असंयम हो नाच रहा है । १२-- संयमी जीवको मात्र श्रद्धान ज्ञान होनेसे भी सिद्धि नहीं है। १३-- भागमज्ञान, आगमज्ञानपूर्वक्तस्वार्थश्रद्धान व तदुभयपूर्वक संयम इन तीनोंका एक साथ होना हो मोक्षमार्ग है ।
सिद्धान्त-(१) अज्ञान प्रश्रद्धा व असंयमके परिणामों का फल शुद्धत्व व कर्मबद्ध
दृष्टि- अशुद्ध भावनापेक्ष अशुद्ध द्रव्याथिकनय (२४४) ।
प्रयोग-संकटमोचन रत्नत्रयके लाभके लिये मूल उपायभूत पागमज्ञानका मननपूर्वक । अभ्यास बनाना ॥२३७।।
अब आगमज्ञान-तस्वार्थश्रद्धान-संयतत्वका योगपद्य होनेपर भी, प्रात्मशान मोक्षमार्ग का साधकतम है यह बतलाते हैं--[यत कर्म] जो अर्थात जितना कर्म [अज्ञानी] अज्ञानी [भवशतसहस्रकोटिभिः] लक्षकोटिभवोंमें क्षिपयति] खपाता है, [तत्] वह अर्थात् उतना कर्म तो [ज्ञानी] ज्ञानी [त्रिभिः गुप्तः] मन वचन कायकी गुप्तिसे युक्त हुआ [उच्छवासमात्रेण] उच्छ्वासमात्रमें [क्षपयति] खपा देता है।