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प्रवचनसार-सप्तदशाङ्गो टीका
४६३ भिरपि योगपग्रेन भाव्यभावकभावविम्भितातिनिर्भरेतरेतरसंवलनबलादनाङ्गिभावेन परिणत. स्यात्मनो यदात्मनिष्ठत्वे सति संयतत्वं तत्पानकवदनेकातमकस्यैकस्यानुभूयमानतायामपि समस्त. परद्रव्यपरावर्तत्वादभिव्यक्त काग्रयलक्षरणश्रामण्यापरनामा मोक्षमार्ग एवावगन्वव्यः । तस्य तु सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग इति भेदात्मकत्वात्पर्यायप्रधानेन व्यवहारनयेन काग्र मोक्षमा इत्यभेदात्मकत्वाद्रव्यप्रधानेन निश्चयनयेन विश्वस्यापि भेदाभेदात्मकत्वात्तदुभयमिति प्रमाणेन प्रज्ञप्तिः ।। इत्येवं प्रतिपत्तुराशयवशादेकोऽप्यनेकोभवं स्त्रलक्षण्यमर्थकतामुपगतो मार्गोपवर्गस्य यः । द्रष्टज्ञातृनिबद्धवृत्तिमचलं लोकस्तमास्कन्दतामास्कन्दत्यचिराद्विकाशमतुलं येनो. ल्लसन्त्याशिवतेः ॥१६॥॥२४२॥ । निषु-सप्तमी एक । जुगवं युगपत दु तु त्ति इति-अव्यय । समुट्ठिदो रामुत्थितः जो यः स्यग्गगदो एकाग्रगत; मदो मतः सामण श्रामण्यं पडिपुण्णं परिपूर्ण-प्रथमा एकवचन । तस्स तस्य-षष्ठी एकवचन । निरुशित-युगमिव पद्यते इति युगपत (युग पद --विवप्) पद गतो 1 समास-दर्शनं च ज्ञानं च चरित्रं चेति दर्शनज्ञान चारित्राणि तेषु दर्शनज्ञानचरित्रेषु ११२४५।। . मोक्षमार्ग हैं। इस प्रकार प्रमाणसे उसका प्रज्ञापन है। इत्येवं इत्यादि । अर्थ---इस प्रकार, प्रतिपादकके आशयके वश, एक होनेपर भी अनेक होता हुआ एकताको तथा त्रिलक्षणताको प्राप्त जो मोक्षका मार्ग उसे लोक दृष्टा-ज्ञातामें निबद्ध वृत्तिको अचलरूपसे अवलम्बन करे, जिससे वह लोक उल्लसित चेतनाके अतुल विकासको अल्पकाल में प्राप्त हो ।
प्रसंगविवरण----अनन्तरपूर्व गाथामें श्रमणको अनुकूल प्रतिकूल सब घटनावोंमें साम्य भाव रखने वाला बतलाते हुए प्रागमज्ञान प्रादि चारोंके योगपद्यको संयतका लक्षण बतलाया गया था ! अब इस गाथामें बतलाया गया है कि प्रागमज्ञान प्रादि चारोंका योगपछ ऐकाप्रथगतपना है जो कि श्रामण्यका दूसरा नाम है और मोक्षमार्गरूप है।
तथ्यप्रकाश---(१) सारा विश्व भेदाभेदात्मक है, सो प्रत्येक तथ्यको भेदरूपसे व अभेदरूपसे दोनों विधियोंसे निरख सकते हैं। (२) मोक्षमार्ग भेदात्मकपनेसे तो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यकचारित्र मोक्षमार्ग है । (३) अभेदातमकपनेसे ऐकामच मोक्षमार्ग है । (४) ऐकायमें सम्यग्दर्शन सभ्यम्ज्ञान सभ्याचारित्र इन तीनोंके होनेपर भी उनकी एकताका अनुभव होता है । (५) जैसे पानक में (शरबतमें) अनेक चीजोंके होनेपर उनकी एकरसताका अनु. भव होता है। (६) ज्ञेयतत्व वे ज्ञाता तत्त्व जो जैसे है उनकी उसी रूपसे प्रतीति होना सम्यग्दर्शन है। (७) ज्ञेयतत्त्व व ज्ञाता तत्त्वका उस ही रूपसे अनुभव होना सम्यग्ज्ञान है । (0) अन्य सर्व पदार्थोकी क्रियाओंकी निवृत्ति के कारण स्पष्ट स्वरूपमात्र द्रा ज्ञाता स्वभावमय अन्तस्तत्त्वमें उपयुक्त होना सम्यकचारित्र है । (६) जब सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान व सम्यक्.
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