Book Title: Pravachansara Saptadashangi Tika
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 475
________________ प्रवचनसार-सप्तदशाङ्गो टोका भावमात्मानमनुभवता शत्रुबन्धुसुखदुःखप्रशंसानिन्दालोष्टकाञ्चनजीवितमरणानि निविशेषमेव जेयत्वेनाक्रम्य ज्ञानात्मन्यात्मन्यचलितवृत्तेर्यत्किल सर्वतः साम्यं तसिद्धागमज्ञानतत्त्वार्थश्रद्धानसंयतत्वयोगपद्यात्मज्ञानयोगपद्यस्य संयत्तस्य लक्षणमालक्षणोयम् ॥२४१॥ -क्तिकांचते स्म यत् तत्कांचनं (काचि -- ल्युट नुमागम) काचिदीप्तिबन्धनयो; भ्वादि । समास-शत्रुबन्धुवर्ग समः इति समश त्रुबन्धु वर्गः, सुखदुःखयोः समः इति समसुख दुःख: प्रशंसानिन्दयोः समः इति प्रशंसनिन्द समः ॥ २४१ ।। है । (६) श्रमणके शत्रु और बन्धुवर्गमें यह मेरा है यह दूसरा है ऐसा मोह रंच नहीं है । (७) श्रमणके सुख और दाखमें ऐसा पक्ष नहीं है कि सुख तो पालादरूप है और दुःख परि. तापरूप है । (८) श्रमणके प्रशंसा और निन्दामें यह पक्ष नहीं है कि प्रशंसा तो मेरा उत्कर्ष है और निन्दा मेरा पतन है । (६) श्रमणके लोष्ठ व काञ्चनमें यह विषमता नहीं है कि लोष्ठ आदि तो मेरे लिये अकिञ्चित्कर है और काञ्चन (सुवर्ण) मेरा उपकारक है । (१०) श्रमणके जीवन ब मरणमें ऐसा विषमभाव नहीं होता कि जीवन तो मेरा आत्मघारण है पौर मरण मेरा अत्यन्त बिनाश है । (११) उदाहरणोक्त पांच घटनावोंमें व उपलक्षणतः सर्व घटनामोंमें श्रमणके रंच भी मोह नहीं है सो सभी घटनामोंमें श्रमणके रागद्वेष उदित नहीं होता है । (१२) अनुकूल प्रतिकूल घटनादोंमें श्रमणके राग द्वेष नहीं है सो वह सतत भी ज्ञानदर्शनस्वभाव प्रात्माको अनुभव लेता है। (१२) अविकार चेतनामात्र अपनेको अनुभवने वाले श्रमणके उपयोगमें शत्रु बन्धु सुख दुःख प्रशंसा निन्दा लोष्ठ काञ्चन जीवन मरण सभी बिना भेदभावके ज्ञेयरूपसे झलकते हैं । (१४) श्रमणके इस उत्कृष्ट साम्यभावका कारण ज्ञानस्वरूप अपने प्रात्मामें अपने उपयोगका प्रचलित रूपसे प्रवर्तना है । (१५) उक्त विवेचना से संयतका लक्षण यही लक्षित होता है कि प्रागमज्ञान तत्त्वार्थश्रद्धान व संयतपनेके योगपद्य के साथ प्रात्मज्ञानका भी साथ साथ नियमतः होना संयतका वास्तविक लक्षण है। सिद्धान्त-~-(१) श्रमणका साम्यभाव स्वभावका यथोचित विकास है । दृष्टि-- १- शुद्ध सूक्ष्म ऋजुसूत्रनय नामक पर्यायाथिक नय (३४) । प्रयोग-वर्तमान में व भविष्यमें शाश्वत सहज पवित्र अचल प्रानन्दके लाभके लिये प्रात्माभिमुख ज्ञानके बलसे अनुकूल प्रतिकूल सब घटनाओं में समताभाव धारण करना ।२४१॥ प्रब सिद्ध है प्रागमज्ञान-तत्त्वार्थश्रद्धान संयतत्वके योगपद्यके साथ साथ प्रात्मज्ञानका योगपच जिसके ऐसा संयतपना जिसका कि प्रपर नाम एकाग्रता लक्षण वाला श्रामण्य है इसको हो मोक्षमार्गसे समर्थित करते हैं.---- [यः तु] जो [दर्शनज्ञानचरित्रेषु] दर्शन, ज्ञान और ।

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