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सहजानन्दशास्त्रमालायां
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होनः प्रात्मपरिणामः । ततः संयतस्य साम्य लक्षणम् । तत्र शत्रुबन्धुवर्गयोः सुखदःखयोः प्रशंसानिन्दयो। लोष्टकाञ्चन्योर्जीवितमरणयोश्च समम् अयं मम परोऽयं स्वः, अयमाह्लादोऽयं परितापा, इदं ममोत्कर्षणमिदमपकर्षणमयं ममाकिञ्चित्कर इदमुपकारकमिदं ममात्मधारणमयमत्यन्तविनाश इति मोहाभावात् सर्वत्राप्यनुदित रागद्वेषद्वतस्य सततमपि विशुद्धदृष्टिज्ञप्तिस्व. धातुसंशजीव प्राणधारणे, मर प्राणत्यागे । प्रातिपदिक- समशत्रुबन्धुवर्ग समसुखदुःख प्रशंसानिन्दासमः समलोष्टकांचन पुनर् जीवितमरण सम श्रमण । मूलधातु-जीव प्राणघारणे, म मरणे । उभयपदविवरणसमसत्तुवंधुयागो समशत्रुबन्धुवर्गः समसुदुक्खो समसुखदुःख पसंसणिदसमो प्रशंसानिन्दासमः समलोठ्ठकंचणो समलोष्टकांचनः समो समः समणो श्रमण: जीविदमरणे जीवितमररो-सप्तमी एकवचन । निरुढेला और सुवर्ण समान है, [पुनः] तथा [जोवितमरणसमः] जो जीवन-मरणके प्रति समान है वह [श्रमणः] श्रमण है।
तात्पर्य--समताका पुत्र प्रात्मा श्रमण है।
टोकार्थ-संयम सम्यग्दर्शनज्ञानपूर्वक चारित्र है; चारिश्रधर्म है; धर्म साम्य है; साम्य मोहक्षोभरहित प्रात्मपरिणाम है ! इस कारण संयतका लक्षण समता है । वहाँ शत्रु बंधुवर्ग में, सुख-दुख में, प्रशंसा-निन्दामें, मिट्टीके ढेले और सोने में, जीवन-मरण में एक ही साथ 'यह मेरा पर है, यह स्व है, 'यह प्राह्लाद है, यह परिताप है, 'यह मेरा उत्कर्षण है, यह अपकर्षण है,''यह मेरे अकिचित्तर है, यह उपकारक है, 'यह मेरा प्रात्मधारण है, यह अत्यन्त विनाश है' इस प्रकार मोहके प्रभावके कारण सभी स्थितियोंमें जिसके रागद्वेषका द्वेत प्रगट नहीं होता, जो सतत विशुद्ध दर्शन ज्ञानस्वभाव नात्माका अनुभव करता है, और यो शत्रु--- बंधु, सुख-दुख, प्रशंसा-निन्दा, लोष्टकांचन और जीवन मरणको अन्तरके बिना ही ज्ञेयरूप जानकर ज्ञानात्मक प्रात्मामें जिसकी परिणति प्रचलित हुई है; उस पुरुषको वास्तवमें जो सर्वत: साम्य है वह साम्य जिस संयतके प्रागमज्ञान-तत्त्वार्थश्रद्धान-संयतत्वको युगपत्ताके साथ आत्मज्ञानकी युगपत्ता सिद्ध हुई है ऐसे संयतका लक्षगा है।
प्रसङ्गविवरण-अनन्तरपूर्व गाथामें बताया गया था कि प्रात्मज्ञानसहित प्रागमज्ञान तत्वार्थश्रद्धान व संयतपना इस सबका योगपद्य मोक्षमार्ग है। अब इस गाथों में बताया गया है कि जिस संयतके आगमज्ञान, तत्वार्थश्रद्धान संयम व आत्मज्ञान चारों हैं उस संयतके क्या लक्षण होते हैं।
तथ्यप्रकाश--(१) सम्यग्दर्शनज्ञानपूर्वक हुए चारित्रको संयम कहते हैं । (२) चारित्र धर्म है । (३) धर्म समताभाव है । (४) मोहक्षोभरहित आत्मपरिणामको समताभाव कहते हैं । (५) समता ही संयतका लक्षण निष्कर्षित है, सो श्रमणोंके साम्य भाव पाया हो जाता
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