Book Title: Pravachansara Saptadashangi Tika
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 472
________________ ४५८ सहजानन्दशास्त्रमालायां तितसंयमसाधनीकृतशरीरपात्रः क्रमेण निश्चलनिरुद्धपंचेन्द्रियद्वारतया समुपरतकायवाङ्मनोव्यापारो भूत्वा चिद्वत्तेः परद्रव्यचक्रमणनिमित्तमत्यन्तमात्मना सममन्योन्यसंवलनादेकीभूतमपि स्वभावभेदात्परत्वेन निश्चित्यात्मनैव कुशलो मल्ल इव सुनिर्भरं निष्पीड्य निष्पोड्य कषाय. चक्रमक्रमेण जीवं त्याजयति, स खस सकलपरद्रव्यशून्योऽपि विशुद्धशिज्ञप्तिमात्रस्वभावभूतावस्थापितात्मतत्त्वोपजातनित्य निश्चलवृत्तितया साक्षात्संयत एव स्यात् । तस्यैव चागमज्ञानतत्त्वाधश्रद्धानसंयतत्वयोगपद्यात्मशानयोगपद्यं सिद्धयति ॥२४०।। तत् संयल भणित । मूलधातु .....गुपू संरक्षणे। उभयपदविवरणपंचसमिदो पंचसमितः तिगुत्तो त्रिगुप्तः पंचेंदियसंबुडो पंचेन्द्रियसंवृतः जिदकसाओ जितकषायः दसणणाणस मम्गों दर्शनज्ञानसमग्रः समणो श्रमणः सो सः संजदो संयत:-प्रथमा एकवचन । भणिदो भणित:-प्रथमा एकवचन कृदन्त क्रिया । निरुक्ति-सम सकलं यथा स्यात्तथा गृह्यते इति समग्रं (सम ग्रह +ड) ग्रह उपादाने कयादि 1 समास-जिता: कषायाः येन सः जितकषायः, दर्शन च ज्ञानं च दर्शनज्ञान ताभ्यां समनः दर्शनज्ञानसमग्रः ।। २४० ।। ही कुशल मल्लको भौति अत्यन्त मर्दन कर करके प्रक्रमसे उसे मार डालता है। वह पुरुष वास्तबमें, सकल परद्रव्यसे शून्य होनेपर भी विशुद्धदर्शन ज्ञानमात्र स्वभावरूपसे रहने वाले प्रात्मतत्वमें नित्यनिश्चल परिणति उत्पन्न होनेसे, साक्षात् संयत ही है । और उसके ही आगमज्ञान-तत्त्वार्थश्रद्धान-संयतत्वकी युगपत्ताके साथ प्रात्मज्ञानको युगपत्ता सिद्ध होती है । । प्रसङ्गविवरण ----अनन्तरपूर्व गाथामें बताया था कि भागमज्ञानशून्य भागमज्ञानादि होनेपर भी सिद्धि नहीं होतो । अब इस गाथामें वास्तविक संयमीका स्वरूप बताकर यह सिद्ध किया है कि आगमज्ञान, तत्त्वार्थश्रद्धान, संयतपना व प्रात्मज्ञान चारोंके योगपद्यसे सिद्धि होती है। तथ्यप्रकाश-(१) वास्तविक संयमी पुरुषके पागमज्ञान तत्त्वार्थश्रद्धान, संयतपना व प्रात्मज्ञान इन चारोंका योगपद्य है । (२) जो श्रमरण विशुद्ध दर्शनज्ञानमात्रस्वभावभूत आ. स्मतत्त्वमें अपने उपयोगको निश्चलवृत्तिसे अवस्थापित करता है वह वास्तव में साक्षात् संयत ही है। (३) जो अपने उपयोगको समस्त परद्रव्योंसे रहित रखता है वही अपने स्वभाव में उपयुक्त होता है । जो अपने प्रविकारस्वभाव प्रात्मतत्त्वमें उपयुक्त होता है वह समस्त पर, द्रव्योंसे शून्य ही है । (४) ज्ञानी श्रमण कषायचक्रका मर्दन कर कर कुशल मल्लकी तरह कषायचक्रको एकदम दूर कर देता है । (५) कषायसमूहको उखाड़ फेंकनेके लिये समर्थ यह दृढ़ निश्चय ज्ञानीके है कि ये कषायभाव परभाव हैं । (६) यद्यपि कषायप्रकृतिके उदयसे कर्मका कषायानुभाग खिलता है उसका चिद्वृत्तिमें प्रन्योन्यसंवलन होनेसे वह कषायानुभाग जीवविकार

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