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प्रवचनसार-राप्तदशाङ्गी टीका
४५६ अथास्य सिद्धागमज्ञानतत्त्वार्थश्रद्धानसंयतत्वयोगपद्यात्मज्ञानयोगपद्यसंयतस्य कोहग्लक्षणमित्यनुशास्ति
समसत्तुबंधुवग्गो समसुहदुक्खो पसंसणिंदसमो। समलो ठुकंचणो पुण जीविदमरणे समो समणो ॥२४१॥ शत्रु बन्धुवोंमें सम, सुख दुखमें सम प्रशंस निन्दामें ।।
लोष्ठ व कांचनमें सम, जन्म मरण सम श्रमण होता ॥२४॥ समशत्रुबघुवर्गः रामसुखदुःख: प्रशंसानिन्दासमः । समलोष्टकांश्नः पुनर्जीवितभरणे समः श्रमणः ।।२४।।
संयमः सम्यग्दर्शन ज्ञानपुरासरं चारित्रं. चारित्रं धर्मः, धर्मः साम्यं, साम्यं मोहक्षोभवि. नामसंज्ञ--रामसत्तुबंधुवरग समसुहदुक्ख पसंसणिदसम समलोकंचण पुण जीविदमरण सम समण । बन जाता है तथापि अात्मस्वभावसे भिन्न होनेसे विकार परभाव है । (७) कषायचक्रको दूर करने के लिये श्रमणको प्रारंभसे विधिवत् साधना होती है । (८) श्रमण स्याद्वादभित प्रागमज्ञानका अभ्यास करता है । (६) श्रमण प्रागमज्ञान के बलसे सर्वजानन स्वभाव वाले विशद एक ज्ञानस्वरूप स्वात्माका श्रद्धान करता है, अनुभव करता है और इसी परमार्थतत्व में अपने उपयोगको रमाये रहना चाहता है। (१०) श्रमगने पांचों समितियोंसे अंकुशित प्रवृत्तियोंसे शरोरपायको संयमसाधनीभूत किया है । (११) श्रमणने पंच इन्द्रियद्वारोंको रोक कर मन वचन कायको बेष्टावोंको हटाकर त्रिगुप्ति प्राप्त की है । (१२) समितियुक्त गुप्तिसहित पंचेन्द्रियविजयी श्रमण जितकषाय होता है और जितकषाय होनेसे श्रमण दर्शनज्ञानसमग्र होता है सो वह साक्षात् संयम ही तो है।
सिद्धान्त--- (१) अविकार चैतन्यस्वरूप प्रात्मतत्त्वको भावनासे कषायप्रकृतियोंका क्षय होता है कवायभावों का प्रभाव होता है।
दृष्टि-१-- शुद्धभावनापेक्ष शुद्ध द्रव्याथिकनय (२४ब) ।
प्रयोग---अपने आत्माके शाश्वत सहज पवित्र निश्चल परमालादमय एकरूप प्रानंद को पानेके लिये निम्रन्थ होकर इन्द्रियव्यापाररहित होकर स्व सहजात्मस्वरूपमें मग्न होनेका पौरुष होने देना ॥२४०॥
अब प्रागमज्ञान-तत्त्वार्थश्रद्धान-संयतत्वकी युगपत्ताके साथ प्रात्मज्ञान की युगपत्ता जिसे सिद्ध हुई है ऐसे इस संयतका क्या लक्षण है सो अनुशासित करते हैं-[समशत्रुबन्धुवर्गः] जिसके लिये शत्रु और बन्धु वर्ग समान है, [समसुखदुःखः] जो सुख दुःखमें समान है, प्रशंसानिन्दासमः] जिसके लिये प्रशंसा और निन्दा समान है, समलोष्ठकाश्चनः] जिसके लिये