Book Title: Pravachansara Saptadashangi Tika
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

View full book text
Previous | Next

Page 471
________________ ४५७ प्रवचन सार-सप्तदशांगी टीका प्रथागमज्ञानतत्त्वार्थश्रद्धानसंयतत्व यौगपद्यात्मज्ञानयोगपद्य' साधयति - पंचसमिदो तिगुत्तो पंच दियसंवुडो जिदकसाथ । सामग्गो समणो सो संजदो भणिदो ॥ २४० ॥ समिति गुतिले संयुत, इन्द्रियविजयी कषायपरिहारी । दर्शनज्ञानसुसंयत, श्रमण कहा संयमी प्रभुने ॥ २४०॥ पंचमितस्त्रिगुप्तः पंचेन्द्रियसंवृतो जितकषायः । दर्शनज्ञानसमग्रः श्रमणः स संवतो भणितः ॥ २४० ॥ यः खल्वनेकान्तकेतनागमज्ञानबलेन सकलपदार्थज्ञेयाकारकरम्बितविशदेकज्ञानाकारमात्मानं श्रद्धानोऽनुभवं श्चात्मन्येव नित्यनिश्चलां वृत्तिमिच्छन् समितिपञ्चकाङ्कुशित प्रवृत्तिप्रव नामसंज्ञ-पंचमिदतिगुत्त पत्रिवियसंबुडो जिदकसाथ दंसणणाणसमग्ग समण त संजद भणिद । धातुसंज्ञ- गोव गोपने । प्रातिपदिक पंचसमित त्रिगुप्त पंचेन्द्रियसंवृत जितकषाय दर्शनज्ञानसमग्र श्रमण सिद्धान्त - ( १ ) रंच भी विकारसे उपयुक्त पुरुष कर्मभारसे रहित नहीं हो पाता । दृष्टि - १ - शुद्धभावनापेक्ष अशुद्ध द्रव्याथिकनय ( २४स ) । प्रयोग - शाश्वत सिद्धि लाभ के लिये देहादिक में रंचमात्र भी राग न कर श्रविकार ज्ञानस्वरूप ग्रात्मतत्त्वको ग्रात्मरूपसे अनुभवना ॥२३६॥ शब श्रागमज्ञान-तत्त्वार्थश्रद्धान- संयतत्वको युगपत्ता के साथ श्रात्मज्ञानको युगपत्ताको साधते हैं - [पंचमितः ] जो पांच समितियुक्त, [पंचेन्द्रियसंवृतः ] पाँच इन्द्रियोंको रोकने वाला [ त्रिगुप्तः ] तीन गुप्ति सहित [ जितकषायः ] कषायोंको जीतने वाला, [दर्शनज्ञानसमग्रः ] दर्शनज्ञान से परिपूर्ण [ श्रमसः ] श्रमण है [ सः ] वह [ संयतः ] संयत [ भरिणतः ] कहा गया है । तात्पर्य समितिवान् इन्द्रियनिरोधी गुप्तिपालक कषायविजयी दर्शनज्ञानपरिपूर्ण श्रम ही संयमी है । टोकार्थ- जो पुरुष अनेकान्तकेतन सागमज्ञानके बलसे, सकल पदार्थोंके ज्ञेयाकारों के : साथ मिलित विशद एक ज्ञान जिसका ग्राकार है ऐसे आत्माका श्रद्धान और अनुभव करता हुआ प्रात्मामें ही नित्यनिश्चल वृत्तिको चाहता हुआ, संयम के साघनरूप बनाये हुये शरीरपाच . को पाँचसमितियोंसे अंकुशित प्रवृत्ति द्वारा प्रवर्तित करता हुआ, क्रमशः पंचेन्द्रियोंके निश्चल निरोध द्वारा जिसके काय वचन मनका व्यापार विरामको प्राप्त हुआ है, ऐसा होकर, चिद्वृत्ति के लिये परद्रव्यमें भ्रमण के निमित्तभूत कषायचक्र को ग्रात्मा के साथ अन्योन्य मिलन के कारण अत्यन्त एकरूप हो जानेपर भी स्वभावभेदके कारण पररूपसे निश्चित करके श्रात्माके द्वारा

Loading...

Page Navigation
1 ... 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494 495 496 497 498 499 500 501 502 503 504 505 506 507 508 509 510 511 512 513 514 515 516 517 518 519 520 521 522 523 524 525 526 527 528