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सहजानन्दशास्त्रमालायां
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प्रथान कास्य मोक्षमार्गत्वं विघटयति
मुज्झदि वा रजदि वा दुस्सदि वा दव्वमण्णामा सेज्ज । जदि समणो अण्णाणी बज्झदि कम्मेहिं विविहेहिं ॥ २४३ ॥ यदि प्रज्ञानी हो मुनि, प्राश्रय करि पर विभिन्न द्रव्योंका |
मोहे रुषे तूषे, तो बांधे विविध कर्मोंको ॥ २४३ ॥
तवा रज्यति वा द्वेष्टि वा द्रव्यमन्यदासाथ यदि श्रमणोऽज्ञानी वध्यते कर्मभिर्विविधैः ॥ २४३ ॥ यो हि न खलु ज्ञानात्मानमात्मानमेकमग्रं भावयति सोऽवश्यं ज्ञेयभूतं द्रव्यमन्यदासीदति । तदासाद्य च ज्ञानात्मात्मज्ञानाभ्रष्टः स्वयमज्ञानीभूतो मुह्यति वा रज्यति वा द्वेष्टि वा
नामसंज्ञ – वा दव्य अण्ण जदि समण अभ्णाणि कम्म विविह। धातुसंज मुज्झ मोहे, रज्ज रागे, इस कृत्ये च बन्धने । प्रातिपदिक- वा द्रव्य अन्यत् यदि श्रमण अज्ञानिव कर्मन विविध । मूलधातु- मुह चिरंज रागे द्विप ये बन्ध बन्धने । उभयपदविवरण मुज्झदि मुह्यति रज्जति रज्यति दुस्सदि चारित्र तीनों एक साथ हो जाते हैं तब इतरेतर संवलन होनेके कारण श्रङ्गाङ्गिभावसे परिगत आत्मा आत्मनिष्ठ हो जाता है, यही वास्तविक संयतपना है । (१०) श्रागमज्ञान, तत्त्वार्थश्रद्धान, संयतपना व श्रात्मज्ञान इन चारोंका यौगपद्य श्रामण्य है, मोक्षमार्ग है ।
सिद्धान्त - ( १ ) अन्तः ज्ञानमय पौरुषसे शुद्ध विकसित परमात्मतत्वको उपलब्धि होती है ।
दृष्टि - १ - पुरुषकारनय ( १८३ ) ।
प्रयोग - श्रामण्य लाभ (आत्मशान्ति ) के लिये प्रागमज्ञानका अभ्यास करना व संतस्वस्वका मनन करना ||२४२ ।।
अनेकता मोक्षमार्गत्वका विघटन करते हैं- [ यदि ] यदि [ श्रमरः ] श्रमण [श्रन्यत् द्रव्यम् आसाद्य ] अन्य द्रव्यका प्राश्रय करके [ श्रज्ञानी] प्रज्ञानी होता हुआ, [मुह्यति वा ] मोह करता है, अथवा [ रज्यति वा ] राग करता है, [ द्वेष्टि या ] अथवा द्वेष करता है, तो वह [ विविधैः कर्मभिः] विविध कर्मोंसे [ अध्यते ] बंधता है |
तात्पर्य --- यदि मुनि राग द्वेषादि करने लगे तो वह नाना कर्मोसे बँध जाता है । टीकार्थ---जो वास्तव में ज्ञानात्मक आत्माको एक अग्र रूपसे नहीं भाता, वह अवश्य ज्ञेयभूत अन्य द्रव्यका आश्रय करता है, और उसका श्राश्रय करके, ज्ञानात्मक श्रात्मज्ञान से वह स्वयं अज्ञानी होता हुआ मोह करता है, राग करता है, अथवा द्वेष करता है; श्रीर वैसा होता हुग्रा वैधता ही है, छूटता नहीं ।