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सहजानन्दशास्त्रमालायां दितमात्मानमननुभवत् कथं नाम जेयनिमग्नो ज्ञानविमूढो ज्ञानी स्यात् । प्रज्ञानिनश्च ज्ञेयद्योतको भवनप्यागभः किं कुर्यात् । ततः श्रद्धानशून्यादागमान्नास्ति सिद्धिः । किंच-सकलपदाथशंगाकार कर म्बिसविशदक ज्ञानाकारमात्मानं श्रद्दधानोऽप्यनुभवन्नपि यदि स्वस्मिन्नेव संयम्य न वर्तयति तदानादिमोहरागद्वेषनासनोपजनितपरद्रव्यचक्रमणस्वैरिण्याश्चिद्वृत्तेः स्वस्मिन्नेव स्थानातिनासननिःकम्पकतत्त्वभूच्छितचित्यभावात्कथं नाम संयतः स्यात् । असंयतस्य च यथोदितास्मतत्त्वप्रतीतिरूपं श्रद्धानं यथोदितात्मतत्वानुभूतिरूपं ज्ञानं वा कि कुर्यात् । ततः संयमशून्यात् श्रद्धानात् ज्ञानाद्वा नास्ति सिद्धिः । अत आगमज्ञानतत्वार्थश्रद्धानसंयतत्वानामयोगपद्यस्य मोक्षमार्गत्वं विघटेतव ॥२३॥
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तृतीया ए० । सिज्मादि सिद्धयति निम्बादि निर्वाति-वर्त० अन्य० एका० किया। सद्दहणं श्रद्धानं सदहमाणो श्रधान: असंजदो असंयतः-प्रथमा एकवचन । अस्थि अस्ति-वर्त० अन्य एक० त्रिया । अत्थेसु अर्थेषु--- सप्तमी बहु० । अत्थे अर्थान-द्वितीया एत्रा० । निरुक्ति- श्री इति श्रत् (श्री- इति) श्रद् दधाति इति श्रद्दधानः श्रीन, पाके कयादि ।।२३७।। ज्ञान तत्त्वार्थश्रद्धान संयतत्वके अयोगपद्य के मोक्षमार्गत्व घटित नहीं होता।
प्रसंगविवरण---अनन्तरपूर्व गाथामें बताया था कि आगमज्ञान, तत्त्वार्थश्रद्धान व संयम इनका योगपद्य मोक्षमार्ग है । अब इस गाथामें बताया गया है कि उन तीनका अयौमपद्य (एक साप न होना) मोक्षमार्गका विघटन कर देता है ।
तथ्यप्रकाश-१- श्रद्धानशून्य आगमज्ञानसे सिद्धि नहीं होती । २- आगमज्ञानके अविनाभावी श्रद्धानसे भी यदि संयमशून्यता है तो सिद्धि नहीं होती । ३- कोई भले ही प्रागमबलसे समस्त पदार्थोंको युक्ति पुरःसर बोध कर ले, किन्तु समस्तपदार्थज्ञेयाकार जिसमें प्रतिबिम्बित होते हैं ऐसे विशद एक ज्ञानाकारस्वरूप आत्माका यथार्थ विश्वास नहीं करता तो वह ज्ञेयनिमान है । ४-- जो पुरुष विशद कज्ञानाकारस्वरूप स्वात्माके श्रद्धानसे शून्य होनेसे सहजातमस्वरूप अन्तस्तत्व का अनुभव नहीं कर पाता वह ज्ञानविमूढ़ है । ५- ज्ञेयनिमग्न और ज्ञानविमूढ़ जोव कैसे सम्यग्ज्ञानी हो सकता है । ६-- अज्ञानीका प्रागमज्ञान शेयपदार्थों का खूब निरूपण करता है तो भी उसको सिद्धि नहीं होती। ७ श्रद्धानशून्य प्रागमज्ञानसे सिद्धि नहीं हुआ करती ! ५- किसीके ज्ञानाकारस्वरूप प्रात्माका श्रद्धान और अनुभव भी हो जाय तो भी यदि स्वात्मामें संयत होकर नहीं वर्तता है तो उस संयमशून्य श्रद्धान ज्ञानसे भी सिद्धि नहीं होती । E-- जन स्वयं में मोहरागद्वेषवासनानित परद्रव्यचंक्रमण (परद्रव्योंमें उछल कूद, परिभ्रमण, अटपट जानना) होनेसे स्वच्छन्द (चिद्वृत्ति (चित्तपरिणति) बन रही है