Book Title: Pravachansara Saptadashangi Tika
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 464
________________ सहजानन्दशास्त्रमालायां प्रसिद्धसंयमस्य तु सुनिश्चितकाग्रयगतत्वरूपं मोक्षमार्गापरनामश्रामण्यमेव न सिद्धयत् । प्रत प्रागमज्ञानतत्त्वार्थश्रद्धानसंयतत्वानों योगपद्यस्यैव मोक्षमार्गत्वं नियम्येत ॥२३६॥ इति कध कथं-अव्यय । भवदि होदि भवति अस्थि अस्ति भणदि भगति--वर्तमान अन्य एवा. क्रिया। निरुक्ति- दृश्यते अनया इति दृष्टि: (श+क्तिम्)। समास-- आगमः पूर्वं यस्था: सा आगमपूर्वा, (न संयतः असंयतः ॥२३६|| विधिसे अनेकान्तात्मक पदार्थका विज्ञान होता है। ४- जिसके प्रागमपूर्विका तत्त्वार्थश्रद्धानमयी दृष्टि नहीं है उसके स्वपरभेदविज्ञान न होनेसे शरीर और कषायभावके साथ अपने एकत्वका निश्चय रहता है । ५-- जिसका शरीर और कषायभावके साथ अपनी एकताका निश्चय रहता है वह विषयोंकी अभिलाषाको नहीं रोक सकता। ६ को विषयों की अभिलाषाको दूर नहीं कर सकता वह षटकायके जीवोंको हिसासे अलग नहीं रह सकता। ७- विषयाभिलाषी षट्काय जीव घातीको विषयादिमें निरर्गल प्रवृत्ति होती, निवृत्ति किञ्चिन्मात्र भी नहीं हो पाती। - विषयाभिलाषी षट्कायघाती विषयप्रवृत्त अविरक्त पुरुष परमात्मज्ञानके अभावसे ज्ञेयोंको क्रमशः प्रांशिक काल्पनिक जानकारी बनाता रहता है । ६आगमपूर्वक दृष्टि न होनेसे अश्रद्धालु अज्ञानी विषयप्रवृत्त जीवोंके ज्ञानरूप आत्मतत्त्वमें ऐका. ग्रवृत्ति न होनेसे संयम रच सिद्ध नहीं हो सकता । १०- जिसके संयम सिद्ध न हो उसके सुनिश्चित ऐकाग्रथगतरूप मोक्षमार्ग अर्थात् श्रामण्य ही सिद्ध नहीं होता। ११-- प्रागमज्ञान, प्रागमज्ञानपूर्वक तत्त्वार्थवद्धान व प्रागमज्ञानतत्त्वार्थश्रद्धानपूर्वक संयतपना इनका एक साथ होनेमें ही मोक्षमार्गपनेका नियम है । १२- जिसकी प्रागमज्ञानपूर्वक दृष्टि नहीं, उसके संयम संभव नहीं, सो संयमहीन पुरुष श्रमण कैसे हो सकता है ? - सिद्धान्त-(१) सम्यश्रद्धानज्ञानसंयमहीन जीव उपाधियोंसे संयुक्त होकर अशुद्धता की ओर बढ़ जाता है। दृष्टि-१- अशुद्धभावनापेक्ष अशुद्ध द्रव्याथिकनय (२४स)। प्रयोग--मोक्षमार्गमें गतिप्रगति के लिये बोधिलाभके प्रथम उपायभूत आगमज्ञानका अभ्यास करना ।।२३६॥ अब आगमज्ञान-तत्त्वार्थश्रद्धान और संयतत्वके अयोगपद्य के मोक्षमार्गपनेका विधटन करते हैं ---[यदि ] यदि [अर्थेषु श्रद्धानं नास्ति] पदार्थोंमें श्रद्धान नहीं है तो, [आगमेन हिं] पागमसे भी [न. हि सिद्धयति] सिद्धि नहीं होती, [वा अर्थान् श्रद्धधानः अपि] तथा पदार्थोंका श्रद्धान करने वाला भी [असंयतः] यदि असंयत हो तो [न निर्वाति] निर्वाणको प्राप्त नहीं होता। Pavaniindia htenidiaomilliunlimitionalitiewATESTRAammmmmmmmmmmmmraman n RISTORisgramm ShTCKuttewwwesannilinicipainm H TAMITRAM BalotsASTRa m an -2018 तातmohinine

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