Book Title: Pravachansara Saptadashangi Tika
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 462
________________ ४४८ सहजानन्दशास्त्रमालाया वागमस्य प्रमाणत्वोपपत्तेः । अतः सर्वेऽर्था प्रागमसिद्धा एव भवन्ति । यथ ते श्रमणानां ज्ञेयत्वमापद्यन्ते स्वयमेव विचित्र गुणपर्यायविशिष्ट सर्व द्रव्यध्यापकाने कान्तात्मक श्रुतज्ञानोपयोगीभूय विपरिणमनात् । अतो न किंचिदप्यागमचक्षुषामदृश्यं स्यात् ॥ २३५॥ बहु० | जाति जानन्ति वर्तमान अन्य० बहु० क्रिया । आगमेण आगमेन तृ० एक० । पेछित्ता दृष्ट्वासम्बन्धार्थप्रक्रिया | ते तान् द्वितीया एक० । निरुक्ति - श्राम्यति इति श्रमण: (श्रम युच् ) श्रभु तपसि दिवादि । समास - आगमेन सिद्धा: आगमसिद्धाः, गुणाश्च पर्यायायचेति गुणपर्यायाः तैः गुणक्लेशे पर्यायः ||२३५|| किये जानेपर सभी द्रव्य वैसे ही ज्ञात होते हैं जैसे कि आगमसे प्रमाण किये गये हैं । (३) सभी द्रव्य नाना गुण पर्यायोसे विशिष्ट जात होते है । ( ४ ) सहजप्रवृत्त अनेक धर्मो ( गुणों में) व प्रवृत्त अनेक धर्मो में (पर्यायों में ) व्यापक अनेकान्तस्वरूप द्रव्य हैं इस प्रकार हो आगमसे प्रमाण किये जाते हैं । (५) सभी पदार्थ श्रागमसे ही प्रमाण किये जाते हैं । (६) पदार्थ जो जैसे हैं वैसे ही श्रमणोंके वनेको प्राप्त होते हैं, क्योंकि श्रमण नानागुणपर्यायविशिष्ट सर्व द्रव्योंमें व्यापक अनेकान्सात्मक श्रुतज्ञानोपयोगी होकर प्रवर्तते हैं । ( ७ ) जिनके श्रागमचक्षु है उनको कुछ भी अदृश्य नहीं अर्थात् श्रागमचक्षु पुरुषोंको सब कुछ दिखता हो 1 सिद्धान्त - ( १ ) त्रैकालिक पर्यायों में मात्र एक द्रव्य दीखता है । (२) सहजगुरणपुञ्ज आत्मा एक प्रखण्ड सत् है । (३) श्रागम के अभ्याससे स्वपरनिश्चय होकर आत्मवस्तुको प्रसिद्धि होती है । दृष्टि १- ऊर्ध्वसामान्यनय ( १६६ ) 1२- - गुणिनथ ( १०७ ) । ३- पुरुषकारनय (१८३) । प्रयोग - प्रात्मवस्तुकी सिद्धिके लिये स्वपर निश्चायक आगमका अभ्यास करना | २३५| अब ग्रागमज्ञान, आगमज्ञानपूर्वक तस्वार्थश्रद्धान और तदुभयपूर्वक संयतत्व के यौगपद्य को मोक्षमार्गत्व होनेका नियम करते हैं [ इह ] इस लोक में [ यस्य ] जिसको [ श्रागमपूर्वा दृष्टि: ] श्रागमपूर्वक दृष्टि [ न भवति ] नहीं है [तस्य ] उसके [संघम: ] संयम [नास्ति ] नहीं है [ इति ] इस प्रकार [ सूत्रं भरणति ] सूत्र कहता है; मो [ श्रसंयतः ] प्रसंयत [ श्रमणः ] श्रम [ कथं भवति ] कैसे हो सकता है ? तात्पर्य - श्रागमपूर्वक दृष्टि न होनेसे, संघम न होनेसे प्रसंयमी कैसे श्रमण हो सकता है ? टीकार्य – इस लोक में वास्तव में, स्यात्कार चिन्ह वाले आगमपूर्वक तत्त्वार्थश्रद्धान -

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