________________
४५४
सहजानन्दशास्त्रमालाया
तदेव ज्ञानी स्यात्कारकेतनागमज्ञानतत्वार्थश्रद्धानसंयतत्वयोगपद्यातिशयप्रसादासादितशुद्धज्ञानमयात्मतत्त्वानुभूतिलक्षणशानित्वसद्धाबात्कायवाङ्मनःकर्मोपरमप्रबृत्तत्रिगुप्तत्वात् प्रचण्लोपक्रमपच्यमानभपहस्तितरागद्वेषतया दूरनिरस्तसमस्तसुखदुःखादिविकारः पुनरनारोपितसंतानमुच्छ. वासमात्रेणब लोलयैव पातयति । अत भागमज्ञानतत्त्वार्थश्रद्धानसंयतत्वयोगपयेऽप्यात्मज्ञानमेव मोक्षमार्गसाधकतममनुमन्तव्यम् ॥२३॥ द्वि० ए० । णाणी ज्ञानी अण्णाणी अज्ञानी-प्रथमा एका० । तिहिं अभिः-तृ० बहु० । गुतो गुप्त:--प्रथमा एक० । उस्सासमेत्तेण उच्छवासमात्रेण-तृतीया एकवचन । निरुक्ति-उत् श्वसनं उम्छ्यास: (उत् स्वस् +पत्र ) श्वस् प्राणने । समास-शतानि च तानि सहस्राणि चेति शतसहस्त्राणि शतसहस्राणि च तात कोचश्रेति शतसहस्रकोटयः भवानां शतसहस्रकोटयः इति भवशतसहस्रकोटयः ताभि: भ० ॥२३८॥
HARIHAASHARAMPURNAM SitaramewwwsgmaiIAmanmanmmmmmmmmmm
A AASANSORTCASSTATERIAL m mयगा a sses
S EARomane
तात्पर्य-कर्मक्षयमें व आत्मविकासमें उत्कृष्ट साधक प्रात्मज्ञान है।
टीकार्थ--क्रमपरिपाटीसे तथा अनेक प्रकारके बालतपादिरूप उद्यमसे पच्यमान तथा रागद्वेषको ग्रहण किया हरा होनेसे सुखदुःखादिविकार भावरूप परिणात अज्ञानी पुन। संतान को पारोपित करता जाय इस प्रकार, लक्षकोटिभवोंमें, ज्यों ज्यों करके (महा कष्ट से ) जितना कर्म पार कर जाता है, उतने कर्मको तो स्यात्कारकेलन आगमज्ञान, तत्वार्थश्रद्धान और संय. तत्वको युगपत्ताके अतिशयप्रसादसे प्राप्त शुद्ध प्रात्मतत्यकी अनुभूति जिसका लक्षण है ऐसे ज्ञानोपन के सद्भावके कारण काय-वचन-मनके कोंके उपरमसे त्रिगुप्तिता प्रवर्तमान होनेसे प्रचण्ड उद्यमसे पच्यमान को रागद्वेषके छोड़नेसे समस्त सुखदुःखादिविकार अत्यन्त निरस्त हुमा होनेसे पुनः संतानको प्रारोपित न करता जाय इस प्रकार उच्छ्वासमात्र में ही, लीला मासे ही ज्ञादी नष्ट कर देता है । इस कारण प्रागमज्ञान, तत्वार्थश्रद्धान और संयतत्वको युगपत्ता होनेपर भी प्रात्मज्ञानको हो मोक्षमार्गका साधकतम संयत करना चाहिये ।
प्रसंगविवरण ----अनन्तरपूर्व गाथामें बताया गया था कि प्रागमज्ञान, तत्त्वार्थश्रद्धान घ संयमका अयोगपच मोक्षमार्गपनेकों विघटित करता है । अब इस गाथामें बताया है कि श्रागमज्ञान, तत्त्वार्थश्रद्धान व संयमका योगपद्य होनेपर भी आत्मज्ञान में ही मोक्षमार्गको साघकतमता है।
तथ्यप्रकाश.....(१) नाना प्रकारके बालतप आदिके हठयोगसे अज्ञानीके क्रमपरिपाटीसे लाख करोड़ भवों में जितने कर्म पककर पार हो जाते हैं उतने कर्म तो ज्ञानीके उच्छ्वासमात्रमें ही कट जाते हैं । (२) पक कर कर्मके निकलते समय अज्ञानी राग और द्वेषको अपना लेता है, प्रतः सुखदुःखादिविकारभावसे परिणत होता हुआ और कर्म बांध लेता है, अत। वह कर्मका
iministration