Book Title: Pravachansara Saptadashangi Tika
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 450
________________ ४३६ सहजानन्दशास्त्रमालायां maara प्रथोत्सर्गापवादविरोधदौःस्थमाचरणस्योपदिशति श्राहारे व विहारे देसं कालं समं खमं उवधिं । जाणित्ता ते समणो वट्टदि जदि अप्पलेवी सो॥२३१।। देश काल श्रम क्षमता, उपधीको जानकर श्रमरण वर्ते । माहार विहारोंमें, तो वह है प्रल्पलेपो मुनि ॥२३१॥ आहारे बा विहारे देश काल श्रम क्षमामुपधिम् । ज्ञात्वा तान् श्रमणो बतंते यायल्पलेपी सः ।। २३१ ॥ . पत्र क्षमाम्लानत्वहेतुरुपवासः । बालवृद्धत्वाधिष्ठानं शरीरमुपषिः, ततो बालवृद्धश्रान्त. ग्साना एव त्वाकृष्यन्ते । अथ देशकालज्ञस्यापि बालवृद्धश्रान्तग्लानत्वानुरोधेनाहारविहारयोः - ' नामसंज्ञ---आहार व विहार देस काल सम खम उपधि त रामण जदि अग्पलेवि त । धातुसंज्ञ-- धने, धत्त वर्तने । प्रातिपदिक....आहार व विहार देश काल श्रम क्षमा उपधि तत् धमण यदि बालेपिन् तत् । मूलधातु-शा अवबोधने, वृतु वर्तने । उभयपदविवरण- आहार विहारे-सप्तमी एकः । यदि [श्रमरणः] श्रमण [पाहारे वा विहारे] अाहार अथवा विहारमें [देशं] देश, [कालं] काल [श्रमं] श्रम, [क्षमा] उपवासादिकी क्षमता तथा उपधि] उपवि, [तान ज्ञात्वा] इनको बानकर [वर्तते प्रवर्तता है सः अल्पलेपः] तो वह अल्पलेपी होता है। :: . तात्पर्य–युक्ताहारविहार करने वाला श्रमण अल्पलेपी है । : : टोकार्य क्षमता तथा ग्लानताका हेतु उपवास है और बाल तथा वृद्धत्वका अविष्ठान शरीर उपधि है, इसलिये यहाँ बाल-वृद्धाश्रांत-ग्लान ही लिये गये हैं । अब बाल-वृद्ध श्रोत ग्लानत्वके अनुरोध से पाहार-विहारमें प्रवृत्ति कर रहे देशकालमके भी मृदु प्राचरगामें प्रवृत्त होनेसे पल्प लेप होता दी है। इसलिये अपवाद अच्छा है । तथा बाल-वृद्ध-श्रांत ग्लानत्वके ।। मनुरोषसे, माहार-बिहारमें होने वाले पल्पलेपके भयसे उसमें प्रवृत्ति न कर रहे देशकालज्ञके भी पति कर्कश प्राचरणरूप होकर अक्रममें शरीरपान करके देवलोक प्राप्त करके जिसने समस्त मंयमामृतका समूह वमन कर डाला है उसे तपका अवकाश न रहनेसे, जिसका प्रतीकार प्रशस्य है ऐसा महान लेप होता है. इसलिये अपवाद निरपेक्ष उत्सर्ग श्रेयस्कर नहीं है। तथा बाल-वृद्ध श्रोत-ग्लानत्वके अनुरोधसे पाहार-विहारमें होने वाले अलालेपको न गिनकर उसमें यथेष्ट प्रवृत्ति कर रहे देश काल के भी मृदनाचरण रूप होकर संयम बिगाड़कर असंयत मनके समान हये उसके उस समय तपका अवकाश न रहने ये, जिसका प्रतीकार अशक्य है ऐसा महान् लेप होता है । इसलिये उत्सर्गनिरपेक्ष अपवाद श्रेयस्कर नहीं है । अतः उत्सर्म भौर अपवादके विरोधसे होने वाले पाचरणको दुःस्थितता सर्वया त्याज्य है, और इसीलिये prem maintanti minantimantulitis

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