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प्रवचनसार-सप्तदशांगी टीका
४४१ तने शब्दब्रह्मणि निष्णातेन मुमुक्षुगा भवितव्यम् ।।२३२।। ज्येष्ठा (वृद्ध - ठन् + टाप् + वृद्धस्य ज्यादेशः) । समास आगमे चेष्टा आगमचेष्टा ॥२३॥
प्रसङ्गविवरण-अनन्तरपूर्व गावामें उत्सर्ग व अपवादमार्गके विरोधसे आचरणको दस्थितता बताई गई थी। अब इस गाथामें कर पाचरण प्रज्ञापन समाप्त किया गया था। अब एकाग्रता लक्षणा वाले मोक्षमार्गके प्रज्ञापनके स्थल में मोक्षमार्ग प्रर्थात् श्रामण्यके मूल. साधनभूल पागम में व्यापार कराया गया है।
तथ्यप्रकाश---(१) श्रमण वास्तवमें एकाग्रताको प्राप्त करने वाला ही होता है। २) एकाग्नता उसये ही संभव है जिसमें पदार्थोके यथार्थ स्वरूपको निश्चय किया है । (३) पदार्थों का यथार्थ निश्चय ग्रागमसे ही होता है । (४) श्रामण्यसिद्धिके लिये मूल उपाय प्रागम का अभ्यास है । (५) अागमसे ही उत्पादध्ययनोव्यात्मक पदार्थ समूहका यथार्थ निश्चय होता हैं। (६) अर्थनिश्चयके बिना एकाग्रताकी सिद्धि नहीं । (७) जिसके अर्थनिश्चय नहीं वह । कभी तो कुछ करने की दिशा न मिलनेसे प्राकुलित होकर यत्र तत्र डावाडोल होकर अत्यन्त
पस्थिर रहता है । (८) और अर्थनिराश्रयरहित जीव कभी करने की इच्छा ज्वरसे परवश होकर सब कुछ रच डालनेका इच्छुक होकर सारे व्यापारमें लगकर प्रतिक्षण क्षोभको बढ़ाता रहता है । (६) अर्थनिश्चयरहिन जीव कभो भोगनेको इच्छासे सारे विश्वको भोग्य मानकर उसके प्रसंगमें हुए राग द्वेष से कलुषित हुग्रा यह ज्ञेयार्थरूप परिणाम परिण में कर अस्थिरचित्त रहता है । (१०) अर्थनिश्चयरहित यह जीव अपने भगवान प्रात्माके निष्क्रिय निर्भोग स्व. भावको न देखकर निरन्तर व्यग्र रहता है । (११) यह निष्क्रिय निर्भोग भगवान प्रात्मा समस्त विश्वको पी लिया (जान लिया) जानेपर भी विश्वरूप न होकर एक है यह सहजात्म. स्वरूप अज्ञानी को नहीं जाल है अतः वह सतत व्यग्र रहता है । (१२) एकाग्रताके बिना श्रा। मध्यकी सिद्धि नहीं । (१३) जिसके एकाग्रता नहीं वह जीव अपनेको "यह अनेक हो है" ऐसा निरखता हुआ ऐसी ही प्रास्थासे घिरा रहता है। (१४) जिसके एकाग्रता नहीं : वह नीव अपनेको "यह अनेक है" ऐसा जानता हुअा अनेकरूपकी अनुभूतिसे अपने को हुवाता है । (१५) जिसके एकाग्रता नहीं वह जीव अपनेको "यह अनेक ही है" इस प्रकार छिन्न भिन्न वित्तविकल्पसे युक्त होकर वैसी हो वृत्तिसे परिणमता रहता है । (१६) जिसके एकांग्रता नहीं उस जीवके एक प्रात्माको प्रतीति अनुभूति वृत्तिरूप एकाग्रताका प्रभाव होने से शुद्धात्मतत्त्वमानतारूप श्रामण्य ही सिद्ध नहीं हो सकता । (१७) श्रामण्य प्रर्थात् मोक्षमार्गकी सिद्धिके लिये मुमुक्षुको भगवत्प्राप्त अनेकान्तमय शब्दब्रह्म अर्थात् आगममें अभ्यस्त होना ही चाहिये ।