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प्रवचनसार-सप्तदशाङ्गी टीका
aurगम एवंever मार्गमुपसर्पतामित्यनुशास्तियागमचक्खू साहू इंदियचक्खणि सव्वभूदाणि । देवाय हिचक्खू सिद्धा पुण सव्वदो चक्खु ॥२३४॥ श्रागमचक्षू साधु प्राणो तो सर्व अक्षचक्षू हैं ।
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देवा श्रवधिचक्षु हैं, सिद्ध सकलरूपसे चक्षू ॥ २३४ ॥
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आगमचक्षुः साधुरिन्द्रियचक्षूंषि सर्वभूतानि । देवाश्चादधिचक्षुषः सिद्धाः पुनः सर्वतश्चक्षुषः ॥ २३४ ॥ इह तावद्भगवन्तः सिद्धा एवं शुद्धज्ञानमयत्वात्सर्वतश्चक्षुषः शेषाणि तु सर्वाण्यपि भूतानि मूर्तद्रव्यासक्तदृष्टित्वादिन्द्रियचक्षूंषि देवास्तु सूक्ष्मत्वविशिष्टमूर्तद्रव्यग्राहित्वादवधिचक्षुषः । अथ च तेऽपि रूपिद्रव्यमात्रदृष्टत्वेनेन्द्रियचक्षुभ्र्योऽवि शिष्यमाणा इन्द्रियचक्षुष एव । एव
नामसंज्ञ--आगमचखु साहु इंदियचक्कु सव्वभूव देव य ओहिचखु सिद्ध पुर्ण सम्यदोचक्यू । धातुसंज्ञ - साहू साधने । प्रातिपदिक आगमत्रक्षुषु साधु इन्द्रियचक्षुषु सर्वभूतदेव च अवचिचक्षुषु सिद्ध १- स्वपरज्ञाता व परमात्मस्वरूपज्ञातकि हो कर्मका प्रक्षय होता है ।
सिद्धान्त
दृष्टि-- १ - शुद्धभावनापेक्ष शुद्धद्रव्याथिकनय ( २४ ब )
प्रयोग -- कर्मक्षयका कारणभूत स्वपरात्मस्वरूपप्रकाश व परमात्मस्वरूपप्रकाश श्रागम "ज्ञान बिना नहीं हो पाता, ग्रतः श्रागमज्ञानका पौरुष करना ॥२३३॥
ब मोक्षमार्गपर चलने वालोंके भागम ही एक चक्षु है, ऐसा उपदेश करते हैं[ साधु ] साधु [ श्रागमचक्षुः ] भागमचक्षु हैं [ सर्वभूतानि ] सर्वप्राणी [ इन्द्रिय चक्षूंषि ] इन्द्रिय चक्षु वाले हैं [ च देवाः ] पौर देव [ अवधिचक्षुषः ] श्रवधि चक्षु वाले हैं [ पुनः ] किन्तु [ सिद्धाः ] सिद्ध [सर्वतः चक्षुषः ] सर्वतः चक्षु हैं । तात्पर्य - साधु प्रागमचक्षुसे सब निरखकर अपनी चर्या करते हैं ।
टीकार्थ- -- प्रथम तो इस लोक में भगवन्त सिद्ध हो शुद्धज्ञानमयपना होने से सर्वतः चक्षु हैं, किन्तु शेष सभी जीव इन्द्रियचक्षु है; क्योंकि उनको दृष्टि मूर्त द्रव्योंमें ही लगी होती है । देव सूक्ष्मत्वविशिष्ट मूर्त द्रव्योंको ग्रहण करते हैं इस कारण वे अवधिचक्षु हैं। अथवा वे भी, मात्र रूपी द्रव्योंको देखते हैं इस कारण वे इन्द्रियचक्षुवालोंसे अलग न किये जा रहे इन्द्रियक्ष ही हैं। इस प्रकार इन सभी संसारी जीवोंमें मोहसे उपहत होने के कारण ज्ञेयनिष्ठ होनेसे ज्ञाननिष्ठता के मूल शुद्धात्मतत्व के सवेदन से साध्य सर्वतःचक्षुत्व सिद्ध नहीं होता |
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ब उस सर्वत: चक्षुकी सिद्धिके लिये भगवंत श्रमण ज्ञानका पारस्परिक मिलन हो जानेसे उन्हें भिन्न करना
श्रागमचक्षु होते हैं । सो ज्ञेय और अशक्य होनेपर भी वे उस ग्रागम