Book Title: Pravachansara Saptadashangi Tika
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 456
________________ A ૪૨ सहजानंदशास्त्रमालायां terruptata मोक्षायं कर्मक्षपरणं न संभवतोति प्रतिपादयतिग्रामीणो समय गोवप्पाणं परं वियागादि । विजागांत खवेदि कम्माण किध भिक्खू ॥२३३॥ आगमहीन श्रमण तो यथार्थ निल सत्यको नाने तत्त्व नहि जानता मुनि, कैसे क्षत कर्म कर सकता ||२३३|| आगमहीनः श्रमणो नैवात्मानं परं विजानाति । मविजानत्रर्थात् क्षपयति कर्माणि कथं भिक्षुः ॥ २३३ ॥ न स्वत्वागममन्तरेण परात्मज्ञानं परमात्मज्ञानं वा स्यात् न च परात्मज्ञानशून्यस्य परमात्मज्ञानशून्यस्य वा मोहादिद्रव्य भावकर्मणा जतिपरिवर्तरूपकर्मणा वा क्षपणं स्यात् । तथाहिन तान्निरागमस्य निरवधिभवापगाप्रवाहबाद्दिमहामोहमलमलीमसस्यास्य जगतः पीतोन्मत्त नामसंज्ञ - आगमहीग समण ण एव अप्प पर अवजात अट्ट कम्म कि भिक्खु । धातुसंज्ञ - वि जाण अवबोधने, सव क्षयकरणे । प्रातिपदिक-आगमहोन श्रमण न एवं आत्मन् पर अर्थ अविजानत् कम्म कथं भिक्षु । मूलघातु-शा अवबोधने, क्षपि क्षयकरणे चुरादि । उभयपद विवरण- आगमहोणो आगमहीनः समणो भ्रमणः अविजानत्तो अविजानन भिम्बू भिक्षुः-प्रथमा एकवचन । अप्पा आत्मानं परं द्वितीया सिद्धान्त -- ( १ ) ज्ञानमय श्रात्मामें ज्ञानमय पुरुषार्थसे ज्ञानमय प्रात्माकी ज्ञानमय उपलब्धि होती है। दृष्टि - १- पुरुषकारतय, गुणिनय, ज्ञाननय (१८३, १८७, १९४) । प्रयोग - मोक्षमार्गको प्राप्तिके लिये तत्त्वज्ञान के परमसाघनीभूत प्रागमके ज्ञान में प्रधानतया पौरुष करना ॥ २३२॥ अब भागमहोन पुरुषके मोक्ष नामसे प्रसिद्ध कर्मक्षपण नहीं होता, यह प्रतिपादन करते हैं-- [ श्रागमहोनः ] श्रागमहीन [ श्रमणः ] श्रमण [ श्रात्मानं ] प्रात्माको श्रीर [परं] परको [न एवं विजानाति ] नहीं जानता हो [अर्थात् अविजानन् ] पढार्थीको नहीं जानता मा [भिक्षुः ] भिक्षु [ कर्माणि ] कर्मोंको [ कथं ] किस प्रकार [क्षपयति ] क्षय कर सकता है ? तात्पर्य - भागमहीन पुरुष स्वपरको न जानता हुमा कमका क्षय कैसे कर सकता ? टीकार्थ- वास्तव में प्रागमके बिना परात्मज्ञान या परात्मज्ञानशून्यके व परमात्मज्ञानशून्यके मोहादि द्रव्यभाव कमका क्षय नहीं होता। इसका स्पष्टीकरण -- प्रागमद्दीन व पनादि भवसरिताके प्रवाहको बहाने वाले महामोहमलसे मलिन तथा धतूरा पिये हुये मनुष्यकी भाँति नष्ट हो गया है विवेक परमात्मज्ञान नहीं होता; पोर कमौका या ज्ञप्तिपरिवर्तनरूप

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