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प्रवचनसार-सप्तदशांगी टीका
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अथोत्सर्गापवादमंत्रीसौस्थित्यमाचरणस्योपदिशति----
बालो वा वुड्ढो ग समभिहदो वा पुणो गिलाणो वा । चरियं चरदु सजोरगं मूलच्छेदो जधा ण हवदि ।।२३०॥ बाल हो वृद्ध हो वा, श्रान्त हो ग्लान हो भि कोइ श्रमरण ।
योग्य चर्या करो जिसमें न मूलगुणविराधन हो ॥ २३० ॥ बालो वा वृद्धो वा श्रमाभिहतो वा पुनर्लानो वा । चर्या चरतु स्वयोग्यां मूलच्छेदो यथा न भवलि १२३०॥
बालवृद्धश्रान्तग्लानेनापि संयमस्य शुद्धात्मतत्त्वसाधनत्वेन मूलभूतस्य छेदो न यथा नामसंज्ञ-बाल या बुड्ढ़ वा समभिहद वा पुणो गिलाण वा चरिय सजोग मूलच्छेद जधा ण । सकती है । (१२) रसापेक्ष पाहारके ग्रहण में अन्तरङ्ग अशुद्धि होनेसे भावहिंसा है, प्रतः रसापेक्ष पाहार अयोग्य ग्राहार है 1 (१३) दिन में एक बार ऐषणासमिति प्राप्त यथालब्ध अपूर्णोदर प्रासापेक्ष पाहार भी मधुमास प्रादि दोषोंसे रहित ही योग्य आहार है, क्योंकि हिंसारहित मर्यादित शुद्ध प्राहार हो अहिंसाका प्रापतन है । (१४) मधु माँस चलितरस आदि दोषोंसे युक्त प्राहार हिमाका अायतन है, उसके ग्रहणमें अन्तरङ्ग प्रशुद्धि प्रकट ही है, अतः सदोष अाहार अयोग्य प्राहार है। (१५) उक्त प्रकारका प्राहार हो तपस्वी साधु संतों के लिये योग्य पाहार है, क्योंकि योग्य प्राहारमें हो रागादिविकल्प न जगनेसे निश्चयसे अहिंसा है और इस प्रहिंसाको साधक द्रव्य अहिंसा है। (१६) भाव अहिमासे चैतन्यस्वरूप निश्चयप्राणको रक्षा है । (१७) द्रव्य अहिंसासे परजीवके प्राणों की रक्षा है। (१८) निस पाहार में भावहिमा व द्रव्य अहिंसा दोनों अहिंमायें रहें वह पाहार योग्य प्राहार है। (१६) उक्त योग्याहारके विरुद्ध प्राहारके ग्रहणसे श्रमणके श्रामण्य नहीं रहता।
सिद्धान्त ---- १-- चैतन्य प्राणको दृष्टि श्रादि रूप, रक्षा भाव अहिंसा है । २- रागादि भावकी जागृति भावहिमा है।
दृष्टि-- १- शुद्धनिश्चयनय (४६) । २- अशुद्धनिश्चयनय (४७) ।
प्रयोग.---.-संयमके बाह्यमाघनीभूत शारीरके पालन के लिये आवश्यकता रहने तक योग्य पाहार ही ग्रहण करना व उस समय भी अनशनस्वभाव अविकार चैतन्यस्वरूपकी पाराधना । करना ॥२२६॥
अब उत्सर्ग और अपवादको मंत्रो द्वारा आचरणके सुस्थित्तपनेका उपदेश करते हैं---- बालः वा श्रमण बाल हो [वृद्धः वा] या वृद्ध हो [श्रमामिहतः वा] या श्रांत हो [पुनः सालानः वा] या ग्लान हो [यथा मूलच्छेदः] जैसे मूलका छेद [न भवति] न हो उस प्रकार
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