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प्रवचनसार--सप्तदशांगी टीका अथ कथं परमाणुद्रव्याणां पिण्डपर्यायपरिणतिरिति संदेहमपनुदति----
अपदेसो परमाणु पदेसमेत्तो य सयमसदो जो । णिद्धो वा लुक्खो वा दुपदेमादित्तमाणुहदि ॥१६३॥ परमाणु अप्रदेशी, एकप्रदेशी ,स्वयं अशब्द कहा।
स्निग्धत्य रूक्षतावश, द्विप्रदेशादित्व अनुभवता ॥१६३॥ प्रदेशा, परमाणुः प्रदेशयात्रश्च स्वयमशब्दो यः । स्निग्धो बा रूक्षो वा द्विप्रदेशादित्वमनुभवति ॥१६॥ amisa... परमाणुहि द्वयादिप्रदेशानामभावादप्रदेशः, एकप्रदेशसद्भावात्प्रदेशमात्रः, स्थयमनेक
परमाणद्रव्यात्म कशाब्दपर्यायव्यक्त्यसंभवाद शब्दश्च । यतश्चतुःस्पर्श पञ्चरसद्विगन्धपञ्चवर्णनामme नामसंज-अपदेस परमाणु पदेसमेत य सयं असद्द ज णि वा लुक्ल बा दुपदेसादित्त । धातुसंज्ञअसा हक सत्तायो, सट्ट आहाने । प्रातिपदिक-अप्रदेश परमाणु प्रदेशमात्र च स्वयं अशब्द यत् स्निग्ध वा उस दिप्रदेशादित्व । मूलधातु-- अनु भू सत्तायां, शप शब्दे । उभयपदविवरण-अपदेसो अप्रदेशः परमाणू परमाणुः पदेसमेत्तो प्रदेशमात्रः असदो अशब्द: जो यः गिद्धो स्निग्धः लुक्खो रूक्ष:--प्रथमा एकवचन । य बिबाल भी कर्ता नहीं हो सकता । (७) पुद्गलपिण्ड परिणामात्मक शरीरके का निश्चयत: पुदगलद्रव्य ही हैं।
सिद्धान्त– (१) आत्मा शरीरका कर्ता कारयिता कारण प्रादि कुछ भी नहीं है। T) जीवको शरीरका कर्ता आदि कहना उपचार है।
ष्टि-१- प्रतिषेधक शुद्धनय (४६अ) । २- परकर्तृत्व उपचरित असद्भूत व्यवहार
MI प्रयोग-परद्रव्यस अत्यन्त विविक्त आत्माको मात्र अपने परिणमनका कर्ता निरमना ॥१६२१॥ ४. अब "परमाणुद्रव्योंकी पिण्डपर्यायरूप परिणति कैसे होती है" इस संदेहको दूर करते
परमाणुः] परमाणु [यः अप्रदेशः] जो कि अप्रदेश है, [प्रदेशमात्रः] एक प्रदेशमात्र है, | और स्वयं अशब्दः] स्वयं शब्दरहित है, [स्निग्धः वा रुक्षः वा] वह स्निग्ध अथवा स्म होता हुआ [द्विप्रदेशादित्वम् अनुभवति] द्विप्रदेशादित्वका अनुभव करता है ।
तात्पर्य - एकप्रदेशी परमाणु संघातयोग्य स्निग्धता व रूक्षताके कारण द्वयक प्रादि स्कन्ध हो जाता है।
टोकार्थ-वास्तव में परमाणु दो-तीन प्रादि प्रदेशोंका प्रभाव होनेसे अप्रदेश है, एक प्रदेशका सद्भाव होनेसे प्रदेशमात्र है, और स्वयं अनेक परमाणु द्रव्यात्मकशब्दपर्यायको प्रगटता