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प्रवचनसार-सप्तदशांगी टीका अथान्तरङ्गच्छेदप्रतिषेध एवाय धिप्रतिषेध इत्युपदिशति----
ण हि शिरवेक्खो चागो गए हदि भिक्खुस्स यासयविसुद्धी। अविसुद्धस्स य चित्ते कहं णु कम्मक्खनो विहियो ॥२२० ॥
परत्याग बिना अन्तः, त्याग नहीं उसके भाव शुद्ध नहीं ।
अविशुद्ध चित्तमें फिर, कैसे हो कर्मका प्रक्षय ।। २२० ॥ न हि निरपेक्षस्त्यागो न भवति भिक्षोरामायविशुद्धिः । अविशुतस्य च चित्ते कथं नु कर्मक्षयो विहितः ।। व न खलु बाहिरंगसंगसद्भावे तुषसद्भावे तण्डुलगताशुद्धत्वस्येवाशुद्धोपयोगरूपस्यान्तरण च्छेदस्य प्रतिषेधस्तद्धा च न शुद्धोपयोगमूलस्य कैवल्यस्योपलम्भः । अतोऽशुद्धोपयोगरूपस्या
नामसंज्ञ-ण हि णिरवेक्ख चागण भिक्खु आसयविसुद्धि अविसुद्ध य चिन कहं गु कम्मक्खम विहिल । धातुसंज्ञ- हव सत्ताया। प्रा
- हव सत्तायां । प्रातिपदिक-महि निरपेक्ष त्याग न भिक्ष आशयविद्धि अविशद्धच चित्त कथं नु कर्मक्षय विहित । मलघात-भू सत्तायां। उभयपदविवरण- ण न हि घ च काहं कथं गु नुअव्यय । णिरवेक्खो निरपेक्षः चागो त्यागः आसविसुद्धी आशय विशुद्धिः कम्मक्खओ कर्मक्षय:-प्रथमा
TRUESHA
वचनोंका विस्तार किया जाय तो भी अतिदुस्तर व्यामोह जाल बना ही रहता है । (७) परिग्रहमें मूर्छारूप (ममतारूप) परिग्रहसे नियमतः तो कर्मबन्ध है और नियमतः अन्तरंग छेद है, अतः मुमुक्षुदोंको परिग्रहका त्याग अवश्य ही सर्वप्रथम कर देना चाहिये ।
सिद्धान्त-(१) उपाधिको अपेक्षामें नियमसे अन्तरंग छेद होता है । दृष्टि-१-- उपाधिसापेक्ष अशुद्ध द्रव्याथिकनय (२४) ।
प्रयोग-परिग्रह होनेमें निश्चित अपना विघात है यह जानकर सर्व परिग्रहका त्याग कर अपनेको निसंग नोरंग निस्तरंग परिणमन में आने देनेका पौरुष करना ।।२१६॥
अब इस परिग्रहका निषेध अन्तरंग छ दका ही निषेध है, यह उपदेश करते हैं--- [निरपेक्षः त्यागः न हि] यदि निरपेक्ष त्याग न हो तो [भिक्षोः] भिक्षुके [प्राशयविशुद्धिः] भावकी विशुद्धि [न भवति नहीं होती; [च] और [चित्त अविशुद्धस्य] चित्तमें अविशुद्ध के [कर्मक्षयः] कर्मक्षय [कथं नु] कैसे [विहितः] हो सकता है ?
तात्पर्य- सापेक्ष अविशुद्ध उदय वाले श्रमणके कर्मक्षय नहीं होता।
टीकार्थ-छिलकेक सद्भावमें चावलोंमें पाई जाने वाली रक्ततारूप अशुद्ध ताका त्याग न होनेकी तरह बहिरंग संगके सद्भावमें प्रशुद्धोपयोगरूप अन्तरंगछेदका त्याग नहीं होता और अन्तरंग छदके सद्भावमें शुद्धोपयोगमुलक कैवल्यको उपलब्धि नहीं होती । इस कारण अशु. बोपयोगरूप अन्तरंग छदके निधरूप प्रयोजनकी अपेक्षा रखकर किया जाने वाला उपाधिका
ॐ