Book Title: Pravachansara Saptadashangi Tika
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 441
________________ प्रवचनसार-सप्तदशाङ्गी टोका प. नत्य प्रज्ञाशा चरन्ति, ते किलाहरन्तोऽप्यनाहरन्त इव युक्ताहारत्वेन स्वभावपरभावप्रत्ययबन्धाभावात्स्वभादनाहारा एव भवन्ति । एवं स्वयमविहारस्वभावत्वात्समितिशुद्धविहीररथाच्छापुतविहाराझा. क्षादविहार एव स्यात् इत्यनुक्तमपि गम्यतेति ॥२२७॥ श्रमण अन्यत् भैक्ष अनेषण अन्य तत् श्रमण अनाहार । मूलधातु-भिक्ष भिक्षायां । उभयपदविवरणजस्स यस्य-षष्ठी एक० । अरोसणं अनेषणः अप्पा आत्मा-प्रथमा एक० । तं तत् तवो तपः-प्रथमा एक० । तप्पडिच्छगा तत्प्रत्येषकाः समणा श्रमणाः ते समणा श्रमणाः अणाहारा अनाहारा:-प्रथमा बहुवचन । अण्णं अन्यत् भिक्खं भैक्ष-द्वि० एक० । अणेसणं अनेषणं-क्रियाविशेषणं । अध अथ पि अपिअव्यय । निरुक्ति- भिक्षणं भिक्षः भिक्षस्येदं इति भैक्षं (भिश् + अण्) भिक्ष भिक्षायां अलाभे लाभे च । समास-न आहारः येषां ते अनाहाराः ।)२२७।। प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व गाथामें अप्रतिषिद्ध श्रमणशरीरके पालनका विधान बताया गया था। अब इस गाथामें यह बताया गया है कि योग्य आहार विहार करने वाले श्रमण साक्षात् अनाहारी व अविहारी है।। तथ्यप्रकाश-(१) श्रमण अपने आत्माके अनाहारस्वभावका सतत प्रतीति रखता है । (२) अनाहारस्वभावी होनेपर भी श्रमण संयमसाधकशरीरके पालन के लिये ऐषणाके दोषसे रहित भैक्ष्य चर्या करता है । (३) अनाहारस्वभावदृष्टि वाला तथा निर्दोष चर्या वाला होनेसे योग्य आहार करता हुआ भी श्रमण साक्षात् (आत्मदृष्टि से) अनाहार ही है । (४) श्रमण सदा ही अपने प्रात्माको समस्त पुद्गलोंके अहरण (ग्रहण) करनेसे शून्य मानते हैं। (५) श्रमण प्राहारविषयक तृष्णासे रहित होते हैं । (६) अनशन स्वभावके अनुभवने वाले श्रमणों का यह अनाहारचैतन्य प्रतपन अन्तरङ्ग तप है । (७) अनाहारचैतन्यप्रतपनरूप तपकी सिद्धिके लिये निर्दोष विधिसे निर्दोष आहार ग्रहणको चर्या करते हैं । (८) अनशन स्वभाव अन्तस्तत्त्वके भावने वाले श्रमण निर्दोष भिक्षाचर्यासे आहार ग्रहण करते हुए भी श्रमणोंके अनाहारीकी तरह स्वभावपरभावनिमित्तक बन्ध नहीं होता । (8) आहार करते हुए भी श्रमणोंके जब अनाहारी श्रमणकी भांति बन्ध नहीं है, तब वे साक्षात् अनाहारी ही हैं । (१०) प्रात्मा का विहार करना स्वभाव नहीं है, आत्मा अविहारस्वभाव है। (११) अविहारस्वभावपना होनेसे और उसको सिद्धिके लिये समितिसे शुद्ध विहार होनेसे योग्य विहार वाले श्रमण सा. क्षात् विहाररहित ही समझिये। सिद्धान्त-(१) निष्क्रिय शुद्ध अन्तस्तत्त्वको भावना करने वालेके क्रियाका संकल्प नहीं रहता । (२) निष्क्रिय शुद्ध अन्तस्तत्त्वके भावने वाला विहार करके भी विहारका कर्ता नहीं।

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