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सहजानन्दशास्त्रमालाया अथ युक्ताहारविहारः साक्षादनाहारविहार एवेत्युपदिशति
जस्स असणमप्पा तं पि तवो तप्पडिच्छगा समणा । श्रण भिक्खमणेसणमध ते समणा अणाहारा ॥२२७॥
अनशनस्वभाव प्रात्मा के प्रत्येषक श्रमग स्वलक्ष्यबशी ।
ऐषणादोषविरहित, भिक्षाचारी अनाहारी ॥ २२७ ।। यस्थानेषण आत्मा तदपि तपः तत्प्रत्येपकाः श्रमणाः । अन्यभक्षमनेषणमथ ते श्चमणा अनाहात ||२२७॥
स्वयमनशनस्वभावत्वादेषणादोषशून्यभैश्यत्वाच्च युक्ताहार साक्षादनाहार एव स्यात् । तथाहि--यस्य सकलकालमेव सकलपुद्गलाहरणशून्यमात्मानमवबुध्यमानस्य सकलाशनतृष्णाशून्यत्वास्वयमनशन एव स्वभावः । तदेव तस्यानशनं नाम तपोऽन्तरङ्गस्य बलीयस्त्वात् इति कृत्वा ये तं स्वयमनशनस्वभावं भावयन्ति श्रमणाः, तत्प्रतिषिद्धये चैधरणादोषअन्धमन्यद्भक्षं
नामसंज- अरेसण अपत पि तब तपहिच्छग समण अण्ण भिक्ख अरणेसह अघत समण अणाहार । धातुसंज्ञ - भिक्ख भिक्षायां । प्रातिपदिक- यत् अनेषण आत्मन् तत् अपि तपस तत्प्रत्येषक स्वभाव निश्चयसे तप है; [तत्प्रत्येषकाः] और निराहारस्वभाव प्रात्माको प्राप्त करने के लिये प्रयत्न करने वाले श्रमरणाः] श्रमण [अन्यत् भक्षम्] स्वरूपसे पृथक् भिक्षाको [अनेषणम्] एषणारहित ग्रहण करते हैं, [अथ] इसलिये ते श्रमणाः] वे श्रमरण [अनाहाराः] अनाहारी,
तात्पर्य--निराहारस्वभावी आत्माको प्राप्तिके लिये संयमी जीवन बिताने के लिये परिस्थितिवश निर्दोष आहार लेनेपर भी श्रमण अनाहारी है।
टोकार्थ-स्वयं अनशनस्वभावपना होनेसे और एषणादोषशून्य भक्ष्यपना होनेसे, युक्ताहारी श्रमण साक्षात् अनाहारी ही है। स्पष्टीकरण----सदा ही समस्त पुद्गलाहारसे शून्य आत्माको जानते हुए जिसका समस्त प्रशनतृष्णारहित होनेसे स्वयं अनशन हो स्वभाव है। वहो उसके अनशन नामक तप है, क्योंकि अंत रंगकी विशेष बलवत्ता है, यह समझकर जो श्रमण प्रात्माको स्वयं 'अनशनस्वभाव भाते हैं और उसकी सिद्धिके लिये एषणादोषशून्य पर... रूप भिक्षा प्राचरते हैं; वे पाहार करते हुए भी मानो आहार नहीं करते हों, ऐसे होनेसे साक्षात् अनाहारी ही हैं, क्योंकि युक्ताहारित्व के कारण उनके स्वभाव तथा परभावके निमित्त से बन्ध नहीं होता। इस प्रकार स्वयं प्रविहारस्वभाव वाला होनेसे और समितिशुद्ध विहारवाला होनेसे युक्तविहारी श्रमण साक्षात् अविहारी ही है-~-यह अनुक्त होनेपर भी समझना चाहिये।