________________
सहजानन्दशास्त्रमालायां अय युक्ताहारस्वरूपं बिस्तरेरणोपदिशति
एक खलु तं भत्तं अप्पडिपुण्णोदरं जहालद्ध। चरणं भिक्षेण दिवा ण रसावेक्खं ण मधुमंसं ॥२२॥ इकभुक्ति अपूर्णोदर, जैसा भी मिले दिनमें चर्यासे ।
अरसापेक्ष निरामिष, अमधु सुयुक्त प्राहार यही ॥२२६॥ एकः खलु स भक्त: अप्रतिपूर्णीदरो यथालब्धः । चरण भिक्षया दिवा न रसापेक्षो न मधुमासः ।। २२६ ।।
एककाल एवाहारो युक्ताहारा, तावतव श्रामण्यपर्यायसहकारिकारणशरोरस्य धारणत्वात् । अनेककालस्तु शरीरानुरागसेव्यमानत्वेन प्रसह्य हिसायतनोक्रियमाणो न युक्तः । शरी.
नामसंज्ञ- एक्क खलु त भत्त अपद्धिपुण्णोदर जहालद्ध चरण भिवरल दिवा ण रसावेण ण मधुमंस। है स्वभाव है" ऐसे परिणामसे रहित है, अतः योगी योगध्वंस नहीं होता । (१३) जिसके योगध्वंस नहीं, अनशनस्वभावकी प्रतीति है, देहका परिकर्म नहीं है, श्रामण्यपर्यायका सहकारी कारणपना होनेसे देहका बनाये रखना आवश्यक है उस श्रमणके युक्ताहारपना होता
सिद्धान्त-(१) श्रमण अनशनस्वभाव आत्मतत्त्वको निरन्तर प्रतीति व पाराधना के कारण कर्मभारसे रहित होता है । (२) ममत्वरहित थमगण अनशनस्वभावकी प्रतीति सहित योग्य प्राहार लेना पड़नेसे अभोक्ता है।
दृष्टि----१-शुद्धभावनासापेक्ष शुद्ध द्रव्याथिकनय (२४ब) ! २-अभोक्तृनय (१६२) ।
प्रयोग- अनशनस्वभाव अन्तस्तत्वको प्रतीति आराधनासहित होते हुए आवश्यक होनेपर योग्य आहारादिकी प्रवृत्ति करना ।।२२८||
अब युक्ताहारका स्वरूप विस्तारसे बतलाते हैं-[खलु] वास्तवमें [सः भक्तः] बह आहार (युक्ताहार) [एकः] एक बार [अप्रतिपूर्णोदरः] ऊनोदर [यथालब्धः] यशालब्ध (जैसा प्राप्त हो वसा) [दिवा] दिन में [भिक्षया चरपं] भिक्षाचरणसे लेना, [न रसापेक्षः] रसको अपेक्षासे रहित, और [न मधुमांसः] मधु मांस रहित होता है।
टोकार्थ--एक बार आहार ही युक्ताहार है, क्योंकि उतनेसे ही श्रामण्य पर्यायका सहकारी कारणभूत शरीर टिका रहता है । शरीरके अनुरागसे ही अनेकबार पाहारका सेवन किया जानेसे कायरतासे हिसायतनरूप किया जाता हुना युक्त नहीं है; और शरीरानुरागसे सेवकपनेसे अनेक बार आहार युक्त न हुएके भी अपूर्णोदर प्राहार हो युक्ताहार है, क्योंकि वही प्रतिहतयोगरहित है । पूर्णोदर पाहार प्रतिहत योग वाला होनेसे कथंचित् हिसायतनः