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प्रवचनसार-सप्तदर्शागी टोका
२९.
नाम ममायं ततो नानुग्रहाही किंतुपेक्ष्य एवेति परित्यक्तसमस्त संस्कारत्वाद्रहित परिकर्मा स्यात् । ततस्तन्ममत्व पूर्व कानुचिताहारग्रह्णाभावाद्युक्ताहारत्वं सिद्धयं तु । यतश्च समस्तामध्यात्मशक्ति प्रकटयन्ननन्तरसुत्रोदितेनानशनस्वभावलक्षणेन तपसा तं देहं सर्वारम्भेणाभियुक्त वान स्यालु । तत श्राहारग्रहणपरिणामात्मकयोगध्वंसाभावाद्युक्तस्यैवाहारेण च युक्ताहारत्वं सिद्धयेत् ॥२२५॥
अव्यय | अपणो आत्मनः पृष्ठी एक सत्ति शक्ति - द्वितीया एक । निरुक्ति- शकन शक्तिः (शक् + तिन) शक्ल सामर्थ्य | समास - केवलं देहः यस्य सः केवलदेहः || २२६ ॥
सिंद्ध होता है । और चूंकि उसने समस्त हो ग्रात्मशक्तिको प्रगट करते हुए अनन्तरपूर्व गाथा सूत्र द्वारा कथित अनशनस्वभावलक्षण उपके साथ उस शरीरको सर्व उद्यमसे युक्त किया है पर्यात् जोड़ा है, इस कारण श्राहारग्रहण के परिणामस्वरूप योगध्वंसका अभाव होनेसे योग्य ही प्राहारके कारण उसके युक्ताहारित्व सिद्ध होता है ।
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प्रसंगविवरण - अनन्तरपूर्व गाथा में युक्ताहारविहार श्रमणको साक्षात् प्रनाहारविहार कहा गया था । अब इस गाथा में श्रमर के युक्ताहारपनेका कारण बताया गया है । तथ्य प्रकाश--- ( १ ) श्रमणने समस्त अन्तरङ्ग व बहिरङ्ग परिग्रहका त्याग कर दिया है, किन्तु उसके देह तो अभी लगा ही है । (२) देहको यदि हठपूर्वक त्याग दे याने मरण. कर जाय तो संयम साधनेका अवसर भी खो दिया । (३) श्रमणके अब श्रामण्यपर्यायका सहकारी कारणपना होनेसे केवल देहमात्र उपधि रह गई है । (४) श्रमण के इस देहमात्र उपधि मैं रंच भी ममत्व नहीं है । ( ५ ) श्रमण देहको अनुग्रहके योग्य नहीं जानता, किन्तु उपेक्षाक योग्य ही जानता है । (६) श्रमणको देहमें भी उपेक्षा है अतः श्रमरणने देहका समस्त संस्कार याग दिया है, श्रतः श्रमण रहित परिकर्मा है । ( ७ ) अनुचित आहारका ग्रहण ममत्वपूर्वक ही हो सकता है, अतः ममत्वरहित भ्रमण के अनुचित आहारका ग्रहण संभव नहीं है । ( ८ ) जिसके अनुचित श्राहारका ग्रहण संभव नहीं और श्रामण्यपर्यायका सहकारी कारणपना होनेसे. जीवनका हेतुभूत आहार ग्रहण करना आवश्यक हो गया सो उस श्रमणके युक्ताहारपना हो हो सकता है । ( ६ ) श्रमण अपनी ग्रात्मशक्तिको छुपाये बिना, श्रात्म के श्रनशनस्वभावकी array afte तपमें अपनेको लगाये रहता है । (१०) श्रमण अपने आत्मा के अन* शनस्वभाव की प्रतीतिसहित हो अनेक तपोंमें युक्त रहता है । ( ११ ) आहार ग्रहण करना प्रावश्यक होनेपर श्रमण अपने आत्मा के अनशनस्वभावकी प्रतीतिसहित होता हुआ ही योग्य आहार ग्रहण करता है । (१२) योगी (श्रमण ) " प्रहार ग्रहण करना श्रात्माका परिणाम