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प्रवचनसार-सप्तदशाङ्गी टीका
प्रदीप पूरणोत्सर्प स्थानीयाभ्यां शुद्धात्मतत्वोपलम्भप्रसिद्धयर्थं तच्छरीरसं भोजन संचलनाभ्यां युक्ताहारविहारो हि स्यात् श्रमणः । इदमत्र तात्पर्यम् यतो हि रहितकषायः ततो न तच्छरानुरागेण दिव्यशरीरानुरागेण वाहारविहारयोरयुक्त्या प्रवर्तेत । शुद्धात्मतस्वोपलम्भसाधकश्रामण्यपर्यावपालनायैव केवलं युक्ताहारविहारः स्यात् ॥ २२६॥
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लोयम्हि लोके सप्तमी एक वे भवेत् विधी अन्य० एक० क्रिया । निरुक्ति अत्र इति इह (इदं + ह इ. आदेश ), कषति इति कषायः (आय) कष हिंसार्थः भ्वादि । समास - युक्तः आहार: बिहार: यस्य सयुक्ताहारविहारः ॥२२॥
हैं । (८) कषायरहित होनेसे भ्रमण भविष्य में होने वाले देवादिभावों के ग्रनुभवकी तृष्णा से अत्यन्त दूर है। ( 2 ) परभवकी अपेक्षावोंसे रहित होनेके कारण श्रमणके दिव्यशरीर में भी अनुराग नहीं है । (१०) शरीरका अनुराग न होनेपर भी शुद्धात्मतत्त्वोपलब्धिसाधक श्रमणजीवन में जीवन के लिये आहार करना निषिद्ध नहीं है । ( ११ ) आहार करना आवश्यक होने hi स्थिति भी आत्मस्वरूपके परिज्ञानी श्रम प्रयो ग्राहारका ग्रहण नहीं करता, किन्तुयोग्य आहार ही ग्रहण करता है । ( १२ ) श्रामण्य ( मुनिपना) का पालन प्रयोग्य आहार लेने मैं संभव नहीं है । (१३) श्रमण केवल शुद्धात्मतत्वकी रुचि वाले होते हैं । (१४) शुद्धात्मतत्व के रुचिया श्रमण कषायके वातावरणसे दूर रहते हैं । (१५) कषायके वातावरणसे दूर रहने के लिये श्रमण एक स्थानपर बहुत दिन नहीं रहते, अतः वे विहार करते रहते हैं । (१६) विहार करना श्रावश्यक होने की स्थिति में योग्यायोग्य द्रव्य क्षेत्र काल भावके परिज्ञानी श्रमण योग्य विहार नहीं करते, किन्तु योग्य ही विहार करते हैं । ( १७ ) शुद्धात्मतत्त्वकी उपलfare लिये ही श्रमणका योग्य आहार विहार होता है । ( १८ ) जैसे प्रकाश पानेके लिये दिया में योग्य तेलका डालना (आहार) व योग्य बातीका उसकेरते रहना (विहार) ग्रावश्यक हैं, ऐसे ही श्रामण्यपर्यायपालन के लिये योग्य आहार विहार सिद्धान्त --- ( १ ) शुद्धात्मत्वको शुद्ध भावना होनेसे अयोग्य आहार विहार दूर हो जाता है । (२) शुद्ध ग्रन्तस्तस्वकी धून वाले श्राहार करते हुए भी उसके भोका नहीं । दृष्टि - १ - शुद्ध भावनापेक्ष शुद्ध द्रव्यार्थिकनय (२४) । २ - प्रभोक्तृनय (१९२) १ प्रयोग - सहजानन्दमय प्रात्मतस्वकी उपलब्धिके लिये निर्ग्रन्थ श्रमण होकर योग्य तिचर्या कर जीवनपर्यन्त शुद्ध चैतन्य महाप्रभुकी श्राराधना करना ||२२६।।
अप्रतिषिद्ध है ।
श्रव युक्ताहारविहारी साक्षात् ग्रनाहारविहारी ही है, यह बतलाते हैं - [ यस्य आत्मा मषरसः ] जिसकी दृष्टि में आत्मा आहारको इच्छा से रहित है [ तत् अपि तपः ] वह निराहार