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प्रवचनसार-सप्तदशांगी टीका
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मर्थ श्रुतज्ञानसाधनीभूतशब्दात्मकसूत्रपुद्गलाश्च शुद्धात्मतत्त्वव्यञ्जकदर्शनादिपर्यायतत्परिणत. पुरुषविनीतताभिप्रायप्रवर्तकचित्त पुलाश्च भवन्ति । इदमत्र तात्पर्य, कायवद्वचनमनसी अपि न वस्तुधर्मः ॥२२॥ उपकरणं लिंग लिङ्ग जहजादरूवं यथाजासरूपं गुरुवयणं गुरुवचन विणओ विनयः सुत्तज्झयणं सूत्राध्यमन-प्रथमा एकवचन । जिणमागे जिनमार्ग-सप्तमी एकवचन । भणिदं भणितं णिहिट निर्दिष्टं-प्रथमा एकवचन कृदन्त किया। जिक्ति -मृग्यते येन स मार्ग: मार्ग +ध मार्ग अन्वेषणे, सूत्र्यते यत् तत् सूत्र सूत्र वेष्टने । समास-गुरोः वचनं गुरुवचनं, सूत्रस्य अध्ययनं सूत्राध्ययनं ।।१२।। सम्यक्त्वादिपर्यायोंसे परिणत पुरुषों के प्रति विनम्रताके अभिप्रायमें प्रवर्तने वाले चित्तपुद्गल अर्थात् विनय उपकरण है । ७- उक्त सब उपकरण श्रामण्य पर्यायके सहकारी कारण होनेसे उपकारक हैं व अप्रतिषिद्ध हैं तथापि ये सब काय वचन व मन ही तो हैं, अत। वस्तुधर्म नहीं हैं। ८- काय स्पष्ट रूपसे वस्तुधर्म नहीं है, इसी प्रकार वचन व मन भी वस्तुधर्म नहीं है ।
सिद्धान्त ---(१) अखण्ड शाश्वत सहज चैतन्यस्वभावमात्र आत्माका दर्शन, प्रत्यय, मनुभन निरन्तर बना रहना हो वास्तविक परमार्थ धर्मपालन है।
दृष्टि--- १- अखण्ड परमशुद्धनिश्चयनय, अखण्ड परम शुद्ध सद्भूत व्यवहार (४४,
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प्रयोग--मनवचनकायसम्बन्धी उपकरणोंसे श्रामण्यपर्यायको शुद्धताके लिये सहयोग लेकर मन वचन कायको वस्तुधर्म न जानकर उनकी परम उपेक्षा द्वारा सहजात्मस्वरूपमें उप। युक्त होना ॥२२॥
अब अनिषिद्ध शरीर मात्र उपधिके पालनके विधानका उपदेश करते हैं-- [इहलोक निरपेक्षः] इस लोकमें निरपेक्ष और [परस्मिन् लोके] परलोकमें [अप्रतिबद्धः] अप्रतिबद्ध
[श्रमणः] श्रमण [रहितकषायः] कषायरहित होता हुआ [युक्ताहारविहारः भवेत्] युक्ताहारo विहारी होता है।
तात्पर्य लोकपरलोकविषयक अभिलाषासे रहित श्रमण युक्ताहारविहारी होता है । FM टोकार्थ---अनादिनिधन एकरूप शुद्ध प्रात्मतस्वमें परिणतपना होनेसे समस्त कर्मपुद्
गलके विपाकसे अत्यन्त विविक्त स्वभाव युक्तपना होनेके कारण कषायरहित होनेसे, वर्तमान o कालमें मनुष्यत्व के होते हुये भी स्वयं समस्त मनुष्यव्यवहारसे बहिर्भत होनेके कारण इस
लोकके प्रति निरपेक्षता होनेसे तथा भविष्यमें होने वाले देवादि भावोंके अनुभवनकी तृष्णासे शुन्य होने के कारण परलोकके प्रति अप्रतिबद्धपना होनेसे ज्ञेयपदार्थोके ज्ञानकी सिद्धि के लिये
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