________________
४२६
सहजानन्दशास्त्रमालायां
श्रथ कस्यचित्ववचित्कदाचित्कथंचित्कश्चिदुपधिरप्रतिषिद्धोऽप्यस्तीत्वपवादमुपदिशतिछेदो जेसा विज्जदि गहण विसग्गे सेवमाणस्स । समणो तेहि वट्टदु कालं खेत्तं वियाणित्ता ||२२२ ॥
दोष न जिससे होवे, ग्रहण विसर्जन प्रवृत्ति करनेमें । श्रम उसी विधि वर्ती, जानकर क्षेत्र काल यहां ॥२२२॥
छेदो येन न विद्यते ग्रहण विसर्गेषु सेवमानस्य । श्रमणस्तेनेह वर्ततां कालं क्षेत्र विज्ञाय ।। २२२ ।। श्रात्मद्रव्यस्य द्वितीयपुगलद्रव्याभावात्सर्वं एवोपधिः प्रतिषिद्ध इत्युत्सर्गः । श्रयं तु वि
नामसंज्ञ छ जण गणविसग्ग सेवमाण समण त इह काल खेत । धातुसंज्ञ --- वि जाण अवबोघने, विज्ञ सत्तायां वत्त वर्तने । प्रातिपदिक-छंद यत् न ग्रहणविसर्ग सेवमान भ्रमण तत् इह काल तथ्य प्रकाश -- ( १ ) जिसके परिग्रहका सद्भाव है उसके ममत्वपरिणाम रूप मूर्च्छा अवश्य है । (२) मूर्च्छा परिणाम निर्ममत्वचिच्च मत्कारमात्र शुद्धात्मतत्त्व के विरुद्ध भार है । (३) जिसके परिग्रह है उसके परिग्रहव्यवस्थासम्बन्धी आरम्भ होता है । ( ४ ) मन वचन कायको विविध चेष्टारूप प्रारम्भ निष्क्रियशुद्धात्मा के विरुद्ध भार है । ( ५ ) परिग्रह रखनेपर शुद्धात्मत्वका विघातरूप असंयम अवश्यंभावी है । ( ६ ) सपरिग्रह पुरुष परद्रव्य में रत होनेसे शुद्धात्मतत्वका साधक हो ही नहीं सकता 1 ( ७ ) सपरिग्रह के शुद्धात्मतत्त्वको विराधना होने से अन्तरंगच्छेद होना निश्चित ही है ।
सिद्धान्त - ( १ ) उपाधिसापेक्ष पुरुष निरन्तर अशुद्ध परिणामयुक्त होनेसे निजपरमामतत्त्वका घातक है ।
दृष्टि-- १- उपाघिसापेक्ष नित्य अशुद्ध पर्यायार्थिकनय ( ४० ) |
प्रयोग - परिग्रहको अनर्थकारी जानकर परिग्रहका सर्वथा त्याग करके एकत्वविभक्त सहजचिदानन्दस्वरूप प्रात्माको उपयोग में ग्रहण करना ॥२२१||
अब किसके कहीं कभी किसी प्रकार कोई उपधि अनिषिद्ध भी है' ऐसा अपवाद बतलाते हैं -- [ येन ] जिस उपकरणके द्वारा [सेवमानस्य ] उस उपकरणका सेवन करने वाले भिक्षुके [ग्रहविसर्गेषु ] ग्रहण विसर्जन में [ छेदः ] छ ेद [न विद्यते] नहीं होता [तेन] उस उपकरण के द्वारा [कालं क्षेत्रं विज्ञाय ] काल क्षेत्रको जानकर, [ इह ] इस लोक में [ श्रमरणः ] श्रमण [act] प्रवर्ते ।
तात्पर्य --- जिस उपकरण के रखनेसे मूर्च्छा प्रारम्भ व प्रसंयम न हो वह उपकरण रखा जा सकता है।