Book Title: Pravachansara Saptadashangi Tika
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 431
________________ प्रवचनसार-सप्तदशाङ्गी टीका ४१७ शिष्टकाल क्षेत्र व शाकश्चिदप्रतिषिद्ध इत्यपवाद: । यदा हि श्रमणः सर्वोपथिप्रतिषेव पास्थाय परममुपेक्षासंयमं प्रतिपत्तुकामोऽपि विशिष्ट कालक्षेत्र वशावसन्नशक्ति प्रतिपत्तुं क्षमते तदापकृष्य संयमं प्रतिपद्यमानस्तद्बहिरङ्गसाधनमात्र मुपधिमातिष्ठते । स तु तथा स्थीयमानो न खरधिवच्छेदः प्रत्युत छेदप्रतिषेध एव । यः किलाशुद्धोपयोगाविनाभावी स छेदः । श्रयं तु श्रामण्यक्षेत्र मूलधातु-विद सनायां वृतु वर्तने, विज्ञा अवोचने । उभयपद विवरण- छेदो छेदः प्रथमा एक जय येन तेण तेन तृतीया एक ण न इह अव्यय । विज्जदि विद्यते वर्त० अन्य० एक० क्रिया । गहनविसरणेषु सप्तमी बहु० । सेवमाणस्स क्षेत्रमनस्यष्ठी एक० । समणी श्रमणः - प्रथमा ए० । बदु वर्तताम् - आज्ञार्थी अन्य एक किया। काल खेन क्षेत्र-द्वितीया एक वियाणित्ता विज्ञाय सम्ब टीकार्थ - श्रात्मद्रव्यके द्वितीय पुद्गलद्रव्यका अभाव होनेसे समस्त हो उपधि निषिद्ध है यह तो उत्सर्ग है; और विशिष्ट कालक्षेत्रके वश कोई उपधि अनिषिद्ध है यह अपवाद है । जब भ्रमण सर्व उपचि निषेधका प्रयोग कर परमोपेक्षा संयमको प्राप्त करनेका इच्छुक होने पर भी विशिष्ट काल क्षेत्रके वश हीन शक्ति वाला होनेसे उसे प्राप्त करनेमें असमर्थ होता है, तब उसमें होनता करके संयम प्राप्त करता हुआ उसको बहिरंग साधनमात्र उपधिका साश्रय लेता है। इस प्रकार जिसका आश्रय लिया जाता है ऐसी वह उपधि उपधिपन के कारण वास्तवमें छेदरूप नहीं हैं, प्रत्युत छेदकी निषेधरूप ही है । जो उपधि अशुद्धोपयोगके बिना नहीं होती वह छेद है । किन्तु संयमको वाह्यसाधनमात्रभूत उपधि तो श्रामण्यपर्यायी सहकारी arrena tant वृत्तिके हेतुभूत माहार-नोहारादिके ग्रहण-त्याग संबंधी छेदके निषेधार्थ ग्रहण की जानेसे सर्वधा शुद्धोपयोगका अविनाभूतपना होनेसे छेदके निषेधरूप ही है । प्रसंगfaar - प्रनन्तरपूर्व गाथामें सपरिग्रहताका अन्तरङ्गच्छेद बताया गया था । एब इस गाथा में बताया गया है कि "किसीके कहीं कभी कथंचित् कोई उपधि प्रप्रतिषिद्ध भी होती है" ऐसा अपवादोपदेश किया गया है । तथ्यप्रकाश - ( १ ) उत्सर्ग मार्ग (निर्विवाद स्पष्ट मार्ग) तो यही है कि समस्त उपधि का परिहार करना चाहिये, क्योंकि आत्माके स्वरूपमें पुद्गलादि दूसरा कुछ है ही नहीं । (२) जब कोई श्रमण उपेक्षासंयमका भाव रखकर भी उपेक्षासंघम पाने में समर्थ नहीं है तब संयमका साधक बाह्य साधन ग्रहण करता है यह अपवाद मार्ग है । ( ३ ) यहाँ अपवाद मार्गका अर्थ अतभंग नहीं है, किन्तु आगमोक्त विविसे उपकरण ग्रहण करना, समितिरूप प्रवृत्ति करना अपवाद मार्ग है । ( ४ ) उत्सर्गमार्ग में परम उपेक्षा है । ( 2 ) अपवादमार्ग में विषपूर्वक समिति आदिको प्रवृत्ति है । ( ६ ) ग्रागमोक्त प्रपवादमार्ग भी उसीका उचित होता है जो सर्वोपधि प्रतिषेधको प्रयोग कर परमोपेक्षासंयमको प्राप्त करनेका इच्छुक होनेपर भी

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