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सहजानन्दशास्त्रमालायां प्रथोत्सर्ग एवं वस्तुधर्मो न पुनरपवाद इत्युपदिशति---
किंकिंचण त्ति तक अपुणभवकामिणोध देहे वि । संग ति जिणवरिंदा णिप्पडिकम्मत्तमुद्दिट्ठा ॥२२४॥
मोक्षषी प्रात्माको, देहसंग भी उपेक्ष्य बतलाया।
इतर संग तो हेय हि, यों अप्रतिकर्मत्व जानो ॥२२४॥ किकिचनमिति तर्क: अपुनर्भवकामिनोऽथ देहेऽपि । संग इति जिनवरेन्द्रा निःप्रतिकर्मत्वमुद्दिष्टवन्तः ।२२४॥
अत्र श्रामण्यपर्यायसहकारिकारणत्वेनाप्रतिषिध्यमानेऽत्यन्तमुपात्तदेहेऽपि परद्रव्यत्वात्परिग्रहोऽयं न नामानुग्रहाहः किंतूपेक्ष्य एवेत्यप्रतिकर्मत्वमुपदिष्टवन्तो भगवन्तोऽहंदेवाः । अथ ..... नामसंज्ञ-किकिरण ति तक्क अपुणन्भवकामि अध देह वि संग त्ति जिणवरिद णिप्पडिकम्मत्त उद्दिछ । धातुसंज्ञ--तक्क त द्वितीयगणी। प्रातिपदिक---किकिचन इति तक अपुनर्भवकामिन् अथ देह अपि संग इति जिनवरेन्द्र निःप्रतिकर्मन्व उद्दिष्टवत् । मूलधातु-तर्क तर्कणे। उभयपदविवरण-कि किंचणं किंकिंचनं--प्रथमा एक०। ति इति वि अपि अध अथ-अव्यय । तक्कं तक:-प्र० ए० । अपूणभवकामिणो अपुनर्भवकामिन:--षष्ठी एक । देहे-सप्तमी एक० । संगो संग:-प्र० ए० । जिणवरिंदा जिनवरेदृष्टि रखना ॥२२३॥
___ अब 'उत्सर्ग ही वस्तुधर्म है, अपवाद नहीं यह बतलाते हैं ---- [अथ] जब कि [जिनवरेन्द्राः] जिनवरेन्द्रोंने [अपुनर्भवकामिनः] मोक्षाभिलाषोके, [देहे अपि] देहके विषय में भी [संगः इति] 'यह परिग्रह है' यह कहकर [निःप्रतिकर्मत्वम् ] देहमें संस्काररहितपना (उद्दिष्टवन्तः] उपदेशा है, तब [किं किंचनम् इति तर्कः] फिर मोक्षाभिलाषीके क्या अन्य कुछ भी हो सकता है ? इस प्रकार तर्क होता है । - तात्पर्य----मोक्षाभिलाषीको जन्म देह भी परिग्रह बंधन लगता है तब अन्यको तो चर्चा हो क्या ।
टीकार्थ- यहाँ, श्रामण्यपर्यायका सहकारी कारण होनेसे जिसका निषेध नहीं किया जा रहा है ऐसे अत्यन्त उपात्त शरीरमें भी, 'यह परद्रव्य होनेसे परिग्रह है, वास्तवमें यह अनुग्रहयोग्य नहीं, किन्तु उपेक्षा योग्य हो है ऐसा बताकर भगवन्त अर्हन्त देवोंने अप्रतिकर्मत्व कहा है, तब फिर वहाँ शुद्धात्मतत्त्वोपलब्धिकी संभावनाके रसिक पुरुषोंके शेष—अन्य अनु. पात्त परिग्रह बेचारा कैसे हो सकता है ? --ऐसा अर्हन्त देवोंका भाव व्यक्त ही है। इससे निश्चित होता है कि उत्सर्ग ही वस्तुधर्म है, अपवाद नहीं । तात्पर्य यह है कि वस्तुधर्म होने से परम निग्रंथत्व ही अवलम्बने योग्य है ।
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