Book Title: Pravachansara Saptadashangi Tika
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 433
________________ ४१६ प्रवचनसार-सप्तदशांगी टीका प्रथाप्रतिषिद्धोपधिस्वरूपमुपदिशति अप्पडिकुट्ट उवधि अपत्थणिज असंजदजगोहिं । मुच्छादिजणणारहिदं गेण्हदु ममणो जदि वि अप्पं ॥२२३॥ साधु बन्धसाधन, प्रयतोंके अनभिलषित व अनिन्दित । मूर्छादिजननविरहित अल्पोपधि उपकरण धारे ॥२२३।। E अप्रतिक ष्टमुपधिमप्रार्थनीयमसंयतजनैः । मूर्छादिजननरहितं गृह्णातु श्रमणो यद्यप्यल्पम् ।। २२३ ।। यः किलोषधिः सर्वथा बन्धासाधकत्वादप्रतिक्रुष्टः संयमादन्यत्रानुचितत्वादसंयतजनाप्राधनी यो रागादिपरिणाममन्तरेण धार्यमाणत्वान्मू दिजननरहितश्च भवति स खल्वप्रतिषिद्धः । । प्रतो यथोदितस्वरूप एवोपधिरुपादेयो न पुनरल्पोऽपि यथोदितविपर्यस्तस्वरूपः ॥२२३॥ नामसंज्ञ.....अपडिकुट्ट उवधि अपत्थणिज्ज असंजद जण मुच्छादिजणण रहिद समण जदि दि अप्प । पातुसंज्ञ----गिण्ह ग्रहो । प्रातिपदिक....-अप्रतिकष्ट उपधि अप्रार्थनीय असंयतजन भुर्छादिजननरहित श्रमण यदि अपि अल्प । मूलधातु-ग्रह उपादाने । उभयपदविवरण--अप्पडिकुटु अप्रतिकुष्टं उधि वधि अपत्थणिज्जं अप्रार्थनीयं मुच्छादिजणणरहिदं सूदिजननरहितं अप अल्प--द्वितीया एकवचन । असंजदजयहिं बसंयतजन:-तृतीया बहुवचन । रामणो भ्रमण:-प्रथमा एकवचन । जदि यदि वि अपि-~ अन्यय । गेहदु गृल्लातु-आज्ञार्थे अन्य पुरुष एकवचन क्रिया । निरुक्ति-अऋ क्षत् इति कष्टं कुश आह्वाने रोदने च कुश+क्त अ प्रति उपसर्ग । समास-असंयताश्च ते जनाश्चेति असंयत जनाः, भुच्छ दीनां जनन तेन रहितस्तं मुर्छादिजननरहितं ।।२२३।। प्रसङविवरण-अनन्तरपूर्व गाथामें अप्रतिषिद्ध उपधिका निर्देश किया गया था। । अब इस गाथामें अप्रतिषिद्ध उपधिका स्वरूप बताया गया है । तथ्यप्रकाश---(१) जो बन्धका साधक न हो, जिसकी असंयमी जन इच्छा न करे, जो रागादि परिणामके बिना रखा जा सकता हो वह उपकरण अप्रतिषिद्ध है । (२) जो बंध का साधक हो ऐसा थोड़ा भी कुछ पदार्थ संयमीजनके ग्रहणके योग्य नहीं है । (३) असंयमी जन जिसको उठा लेनेका भाव कर सके वह पदार्थ संयमी जनके ग्रहण के योग्य नहीं है । (४) जिसके रखनेसे रागादि परिणाम हो सके वह पदार्थ संयमी जनके ग्रहणके योग्य नहीं है। T) संयमी पुरुष वे हैं जिनके अविकारसहजज्ञायकस्वरूप स्वको उपलब्धिरूप भावसंयम हो। सिद्धान्स--(१) उपकरणका प्रयोग करने वाले श्रमणके 'परको लेने, करने आदिकी मशक्यताको प्रतीति" निरन्तर है। दृष्टि-१- प्रतिषेधक शुद्धनय (४६) । प्रयोग-विशुद्ध चर्या करते हुए भी निष्क्रिय निरपेक्ष सहजात्मस्वरूपकी प्रतीति व STAR स

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