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सहजानन्दशास्त्रमालायो
पर्यायसहकारिकारशरोरवृत्तिहेतुभूताहारनिहारादिग्रहणविसर्जनविषयच्छेद प्रतिषेधार्थमुपादीयमानः सर्बथा शुद्धोपयोगाविनाभूतत्वाच्छेदप्रतिषेध एवं स्थात् ॥२२२॥ न्धार्थप्रक्रिया अव्यय कृदंत । निरुक्ति-क्षियनं यत्र तत् क्षेत्र क्षियति प्राणी यत्र तत् क्षेत्रं क्षि गतो तुदादि क्षि निवासगत्यो: तुदादि क्षि+अन् । समास-ग्रहणानि विसर्गाश्चेति ग्रहणविसर्गाः तेषु ग्रहणविरागषु ।।२२२।। विशिष्ट काल क्षेत्रके वश हीन शक्ति वाला होने से परमोपेक्षासंयममें नहीं रह सक रहा है। (७) संयमसहकारी उपधिका पाश्रय लेना छेद नहीं, बल्कि छेदप्रतिषेध ही है। (८) जो उपधि अर्थात् ग्रहण व प्रवृत्ति प्रशुद्धोपयोगके बिना नहीं होती वही उपधि छेद अर्थात संयमघातरूप है । (E) श्रामण्यपर्यायके सहकारी कारणभूत शरीरके टिकावके लिये व परिणामों को विशुद्धिके लिये व हिंसाके परिहारके लिये जिन उपधियों के ग्रहण व छोड़ने में संयमविघात न हो, अपवादमार्गमें उनका क्षेत्र कालानुसार प्रयोग करना बताया गया है । (१०) कौनसी प्रवृत्ति प्रागमोक्त विधेय अपवादमार्ग है उसका निर्देश समितियों में किया गया है । (११) वही पदार्थ प्रागमोक्त उपादेय उपकरण हो सकता है जो संयम, शुद्धि व ज्ञानका साधन हो, बह है पीछी, कमंडल व शास्त्र । (१२) जिसके बिना प्रात्मप्रगति नहीं वह व्यवहार भी उपकरण है, वह है—यथाजातरूप लिङ्ग, गुरुबचन, शास्त्राध्ययन व विनय ।
सिद्धान्त--(१) उपेक्षासंयम व परिहारसंयमसे साधकको साधना बनती है। दृष्टि-----१-- क्रियानय, ज्ञाननय (१९३, १६४)।
प्रयोग- परिस्थितिवश प्रागमोपदिष्ट अपवादमार्गसे वृत्ति करते हुए भी उत्सर्गमार्गसे वर्तनेको उमंग रखकर सहजात्मस्वरूप लक्ष्यको दृष्टिमें रखना ।।२२२।।
अब जिसका निषेध नहीं किया गया उस उपधिका स्वरूप कहते हैं- [यद्यपि अल्पम् ] भले ही अल्पको ग्रहण करे तो भी [अप्रतिष्टम् ] अनिन्दित [असंयतजनः अप्रार्यनीयं] असंयतजनोंसे अप्रार्थनीय [मूर्छादिजननरहितं] मूर्छादिजननरहित [उपधि] उपधि को हो [श्रमरपः] श्रमण [गृह्णातु] ग्रहण करे ।
तात्पर्य ---निश्चयमोक्षमार्गकी पात्रता रखने वाले व्यवहारमोक्षमार्गके साधनभूत उपकरण ही मुनि रख सकता, अन्य कुछ नहीं । : टोकार्थ----जो ही उपधि सर्वथा बंधकी असाधक होनेसे अनिदित है, संयमके अतिरिक्त अन्यत्र अनुचित होनेसे असंयतजनों के द्वारा अप्रार्थनीय है, और रागादिपरिणामके बिना धारण की जानेसे मूर्छादिके उत्पादनसे रहित है, वह वास्तव में अनिषिद्ध है । अतः यथोक्त स्वरूप वाली उपधि ही उपादेय है, किन्तु किंचित्मात्र भी यथोक्त स्वरूपसे विपरीत स्वरूप वाली उपधि उपादेय नहीं है।
SOAMIRMAN