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सहजानन्दशास्त्र मालायां
न्तरं गच्छेदस्य प्रतिषेधं प्रयोजनमपेक्षक्ष्योपधेविधीयमानः प्रतिषेधोऽन्तरं गच्छेदप्रतिषेध एव
स्यात् ॥ २२०॥
एकवचन | हवदि भवति व अन्य० एक० क्रिया । भिवखुस्स भिक्षोः अविसुद्धस्स अविशुद्धस्य षष्ठी एकवचन | चित्तं स० ए० । विहिओ विहितः प्रथमा एकवचन कृदन्त क्रिया निरुक्ति- आ शयनं आवयः शित्र निशाते स्वादि आशी + अत्रु, शीङ स्वप्ने वा चत्यते अनेन इति चित्तम् चिती संज्ञाने । समास - आशयस्य विशुद्धिः आशय विशुद्धिः, निर्गता अपेक्षा यस्मात् स निरपेक्षः कर्मणां क्षय: कर्मक्षयः ॥ २२० ॥
निषेध अन्तरंग छोदका ही निषेध है ।
प्रसंग विवरण --- अनन्तरपूर्व गाथामें होनेसे परिग्रह प्रतिषेध्य ही है । सब इस अन्तरङ्गः छोदका हो निषेध होता है ।
बताया गया था कि परिग्रह में अन्तरङ्ग छेद गाथामें बताया गया है कि परिग्रहका निषेध होना
तथ्यप्रकाश - ( १ ) बहिरङ्ग परिग्रह होनेपर अशुद्धोपयोगरूप अन्तरङ्ग छेदका प्रतिपेध नहीं हो पाता जैसे कि श्रान्यका छिलका लगा रहनेपर चावलको ललाईरूप प्रशुद्धताका प्रतिषेध नहीं हो पाता । (२) अशुद्धोपयोग रहनेपर कैवल्यकी उपलब्धि नहीं हो सकती । (३) कैवल्यको उपलब्धि शुद्धोपयोगसे ही होती है । ( ४ ) जो अशुद्धोपयोगरूप अन्तरङ्गछेद का परिहार करना चाहता है उसे परिग्रह ( उपधि) का त्याग करना अनिवार्य है । ( ५ ) उपधि (परिग्रह) का निश्चयतः प्रतिषेध अन्तरङ्गदका हो प्रतिषेध है । (६) भावशुद्धिपूर्वक बहिरंग परिग्रहका त्याग होनेपर ही अन्तरंग परिग्रहका त्याग संभव है । यदि निरपेक्ष त्याग नहीं है तो साधुके परिणामशुद्धि अविकारशुद्धात्मानुभूति नहीं हो सकती । (८) ख्याति लाभ पूजा आदिको इच्छासे बाह्यपरिग्रहका त्याग किया जानेपर तो प्राशय मिथ्यात्वका है और उसमें विकट पापबन्ध है । (६) जिन्होंने शुद्धात्मतत्त्वका ग्रहण नहीं किया वे पर व परभाव का ग्रहण करने में अपना महत्व समझते हैं ।
सिद्धान्त - ( १ ) उपाधिसापेक्ष पुरुषका परिणाम अशुद्ध रहता है व यह कर्मसे लिप्त होता है ।
दृष्टि - १ - उपाधिसापेक्ष अशुद्ध द्रव्यार्थिकनय ( २४ ) |
प्रयोग - निराकुल अविकार सहज परमात्मतस्वकी अनुभूति बनाये रखने के लिये निरपेक्ष निर्ग्रन्थ होना ॥ २२० ॥
'उपधि ऐकान्तिक अन्तरंग छदपनेका विस्तारसे उपदेश करते हैं-- [तस्मिन् ] उपधिके सद्भावमें [तस्य ] उस भिक्षुके [मूर्च्छा]] मूर्छा, [ श्रारम्भ: ] प्रारम्भ [वा ] व