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प्रवचनसार-सप्तदशांगी टीका अर्थकान्तिकान्तरंगच्छेदत्वादुपविस्तद्वत्प्रतिषेध्य इत्युपदिशति----
हवदि व ण हदि बंधों मदम्हि जीवेऽध कायचेठम्हि । बंधो धुवमुवधीदो इदि समणा चड्डिया सव्वं ॥ २१६ ॥
तनचेष्टाभव बधमें, विधिबन्धन हो न हो नियम नहिं है।
उपधिसे बन्ध निश्चित, इससे मुनि छोड़ देते सब ॥२१॥ भवति वा न भवति बधो मृते जीवेऽथ कायचेष्टायाम् । बन्धो ध्रुवमुपधेरिति श्रमणास्त्यक्तवन्तः सवम् ।।
यथा हि कायव्यापारपूर्वकस्य परप्राणव्यपरोपस्याशुद्धोपयोगसद्भावासद्भावाम्यामनका. न्तिकबन्धत्वेन छेदत्वभनेकान्तिकमिष्ट, न खलु तथोपधेः, तस्य सर्वथा तदविनाभावित्वप्रसि
नामसंज्ञव बंध मद जीव अध कायचे? बंध धुर्व उवधि इदि समण छाड्य मन्च । धातुसंजहब सत्तायां । प्रातिपदिक-वान बन्ध मत जीव अथ कायचेष्टा बन्ध ध्रुव उपधि इति श्रमण त्यक्तदन्त सर्व । मूलधातु... में सत्तायां । उभयपदविवरण-हदि भवति-वर्तमान अन्य पुरुष एकवचन क्रिया। श्रमण जन्तुव्याप्त लोकमें रहता विचारता हुअा भी अहिंसक है । (८) पूर्ण पुरुषार्थसे सहज शुद्ध परमात्मतत्त्वकी भावनामें ही उपयुक्त होना कल्याण है ।
सिद्धान्त---(१) अखण्ड अन्तस्तत्त्वकी अभेदोपासनाके बलसे अशुद्धोपयोगरूप अन्त. रन्तरङ्ग छेदका परिहार होता है।
दृष्टि-१- शुद्धनय, प्रतिषेधक शुद्धनय (४६, ४६अ)।
प्रयोग---सहजानन्दलाभके लिये मैं सहजज्ञानमात्र हूं ऐसे उपयोगके द्वारा अविकार झामस्वरूप अनुभव करते हुए अशुद्धोपयोगरूप अन्तरङ्ग छेदका प्रतिषेध करना 1॥२१॥
अब परिग्रहके ऐकान्तिक अन्तरंगछेदपना होनेसे उपधि अन्तरंग छेदकी भांति व्याज्य है. यह उपदेश करते हैं- [कायचेष्टायाम्] कायचेष्टामें [जोवे मृते] जीवके मरनेपर [बन्धः] बंध [भवति] होता है, [बा] अथवा [न भवति] नहीं होता, [अथ] किन्तु [उपधेः] परिग्रहसे [भ्रू वम् बंधः] निश्चित बंध होता है, [इति] ऐसा जानकर [श्रमरणाः] महामुनि अहंन्तदेवोंने [सर्व ] सर्वपरिग्रहको [त्यक्तवन्तः] पहिले ही छोड़ दिया है ।
तात्पर्य---द्रव्यहिंसा होनेपर बन्ध हो या न हो, विन्तु परिग्रहसे तो बंध नियमसे
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टीकार्य---जैसे कायथ्यापारपूर्वक परप्राणव्यपरोपके अशुद्धोपयोगका सद्भाव और असद्भाव होनेके कारण अनेकांतिक बन्धरूप होनेसे छेदत्व अनेकांतिक माना गया है, वैसा परिग्रहके नहीं है । परिग्रहके सर्वथा अशुद्धोपयोगके साथ अविनाभावित्व होनेसे प्रसिद्ध होने