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प्रवचनसार-सप्तदशाङ्गी टीका नव्यबन्धहेतुत्वेन रागपरिणाममात्रस्य भावबन्धस्य निश्चयबन्धत्वं साधयति--
रत्तो बंधदि कम्मं मुञ्चदि कम्मेहि रागरहिदप्पा ।
एसो बंधसमामो जीवाणं जाण णिच्छयदो ॥१७६।। |
रागी हि कर्म बांधे, व छूटता रागरहित कर्मोसे । -
संक्षिप्त बन्धविचरण, जीवोंका जान निश्चयसे ।।१७६॥ को बधनाति कर्म मुच्यते कर्मभी रागरहितात्मा । एप बन्धसमासो जीवानां जानीहि निश्चयतः ॥१५६।।
- यतो रामपरिणत एवाभिनवेन द्रव्यकर्मणा बध्यते न वैराग्यपरिणतः, अभिनवेन द्रक्ष्यमा रागपरिणतो न मुच्यते वैराग्यपरिणत एव, बध्यत एव संस्शुशतवाभिनवेन द्रव्यकर्मणा सरचितेन पुराणेन च न मुच्यते रागपरिणतः, मुच्यत एवं संस्पृशतवाभिनथेन द्रव्यकर्मणा
नामसंज्ञ-रत्त कम्म कम्म रागरहिदप्प एत बंधसमास जीव शिच्छयदो। धातुसंज्ञ-बंध बन्धने । व त्यागे जाण अवबोधने । प्रातिपदिकः ----रक्त कर्मन् कर्मन रागरहितात्मन एतत् बन्धसमास जीव निस्यमा । मूलपातु----बन्ध बन्धने, मृच्न मोचने, ज्ञा अवधोधने । उभयपदविवरण- रत्तो रक्तः रागरहिदमा रामरहितात्मा एसो एषः बंधसभासो बन्धसमासः-प्रथमा एकवचन । बंधदि बध्नाति-वर्तमान अन्य ना मनुभागबन्ध है।
सिद्धान्त-१- द्रव्यबन्धका मूल निमित्त भावबन्ध है । दृष्टि------- निमित्तत्वनिमित्तदृष्टि (५३ब)।
प्रयोग-द्रव्य बन्धके निमित्तभूत भावबत्यसे छुटकारा पानेके लिये प्रबन्ध आत्मस्वभाव की प्रभेद उपासना करना ॥१७८।।
सब रागपरिणाममात्र भावबन्ध के द्रव्यबन्धका हेतुपना होनेसे निश्चयबंधपना सिद्ध करते हैं - [रक्तः] रागो प्रात्मा [कर्म बध्नाति] कर्म बांधता है, [रागरहितात्मा रागरहित । पारमा [कर्मभिः मुच्यते] कर्मोसे मुक्त होता है;-- [एषः] यह [जीवानां] जीवोंके [बंधसमासः] बंधका संक्षेप है, ऐसा [निश्चयतः] निश्चयसे [जानीहि] जानो। - तात्पर्य-रागी जोध कर्मसे बंधता है और रागरहित जीव कर्मोंसे छूटता है।
टोकार्थ--चुकि रागपरिणत जीव ही नवीन द्रव्यकर्मसे बंधता है, वैराग्यपरिणत नहीं, परिणत जीव नवीन द्रव्यकर्मसे मुक्त नहीं होता वैराग्यपरिणत ही मुक्त होता है, रामपरि. स जीव संस्पर्श करने वाले नवीन द्रव्यकर्मसे और चिरसंचित पुराने द्रव्यकर्मसे बंधता ही है मुक्त नहीं होता, वैराग्यपरिणत जीव संस्पर्श करने वाले नवीन द्रव्यकर्मसे और चिरसंचित पुरासे दव्यकर्मसे मुक्त ही होता है, बंधता नहीं है, इस कारण निश्चित होता है कि द्रव्यबंध
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