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सहजानन्दशास्त्रमालायां
भावस्तेनाप्यत्वात्तस्य कमवश्यं स्यात् । एवमात्मनः स्वपरिणामः कर्म न त्वात्मा पुद्गलस्य भावान् करोति तेषां परधर्मत्वादात्मनस्तथाभवन शक्त्यसंभवेनाकार्यत्वात् स तानकुर्वाणो न तेषां कर्ता स्यात् सक्रियमाणाश्चात्मना ते न तस्य कर्म स्युः । एवमात्मन: पुद्गलपरिणामो नं. कर्म ॥ १८४॥
सभावं स्वभावं द्वि० एक० । आदा आत्मा-प्रथमा एक । सगस्स स्वकस्य भावरस भावस्य पष्ठी एक० । पोम्गलदव्यमाणं पुद्गलद्रव्यमयानां सव्वभावाणं सर्वभावानां पण्ठी बहु० । कत्ता कर्ता-प्रथमा एक० । ह्रिण न दुतु अव्यय । निरुक्ति - सरति सर्वत्र गच्छति इति सर्वः । समास - सर्वे च ते भावाश्चेति सर्व भावाः तेषां सर्वभावानाम् ॥ १८४ ॥ ॥
प्रवृत्तिका निमित्त बताया गया था। अब इस गाथामें "आत्माका कर्म क्या है" यह बताया गया है ।
अपने स्वके होने की
तथ्यप्रकाश - ( १ ) ग्रात्मा अपने भावको ही करता है । ( २ ) हीं शक्ति रखने से आत्माका अपना भाव ही कार्य है । ( ३ ) ग्रात्मा अपने लिये बिना स्वतंत्र होकर करता है । ( ४ ) आत्माके द्वारा किया जाने आत्माका कर्म है | ( 2 ) श्रात्मा पुद्गल के भावोंको नहीं कर सकता, हैं । ( ६ ) आत्मामें परके धर्मरूपसे होनेकी शक्ति नहीं है । (७) नहीं कर पाता तब आत्मा परका कर्ता कैसे हो सकता ? (८) जब पुद्गल परिणमन आत्मा के द्वारा क्रियमाण नहीं है तत्र पुद्गलपरिणाम ग्रात्माका कर्म कैसे हो सकता है ? ( C ) परम• शुद्धनिश्चयनयसे ग्रात्माका स्वभाव अनादि अनंत श्रहेतुक है वह क्रियमाण न होनेसे आत्मा
भावको परका कुछ वाला निज भाव ही क्योंकि वे परके धर्म जब आत्मा परद्रव्यका कार्य
।
११ )
शुद्ध
भावकर्म है ।
कर्ता है । (१०) शुद्धनिश्चयनयसे मात्मा केवल ज्ञानादि स्वभावका कर्ता है निश्चयनयसे जीव रागादिपरिणमनरूप स्व भावका कर्ता हैं, यह परस्वभाव ( १२ ) शुद्ध दशा में भावकर्म श्रात्माके द्वारा प्राप्य है व व्याप्य है, अतः भावकर्म जीवकाः कर्म है । (१३) आत्मा चिद्रूप आत्मासे विलक्षण पुद्गलमय ज्ञानावरणादि कमका कर्ता नहीं. है । (१४) अशुद्ध निश्वयनयसे जोवका रागादि स्वपरिणाम हो कर्म है और इस भावकर्मका: कर्ता जीव है ।
(
सिद्धान्त - - ( १ ) जीव प्रकर्ता है । ( २ ) जीव केवलज्ञानादि स्वभावपरिणमनका कर्ता है । ( ३ ) जीव रागादिभाव कर्मका कर्ता है । ( ४ ) पुद्गलकमं रागादिभावकर्मका कर्ता है. (५) जीव मुद्गलकर्मका कर्ता नहीं है ।
दृष्टि - १ - परमशुद्ध निश्चयमय (४४) । २ - शुद्धनिश्चयनय (४६) । ३- शुद्ध निश्चयनय (४७) | ४ - विवक्षितैकदेशशुद्ध निश्चयनय (४८) । ५ - प्रतिषेधक शुद्धनय (४९) |