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प्रवचनसार-सप्तदशांगी टीका अथ कथमात्मनः पुद्गलपरिणामो न कर्म स्यादिति संदेहमपनुदति---
गेण्हदि गणेव ण मुचदि करेदि ण हि पोग्गलाणि कम्माणि । जीवो पुग्गलमज्मे वट्टण्ण वि सव्वकालेसु ॥ १८५ ॥
पुद्गलके मध्य सदा, रहता भी जीव रंच करता नहि।
गहता नहिं नहिं तजता, पुद्गलमय कर्मभावोंको ॥१८५।। गृह्णाति नैव न मुंचति करोति न हि पौद्गलानि कर्माणि 1 जीवः पुद्गलमध्ये वर्तमानोऽपि सवकालेषु ।१८५३
न खल्वात्मनः पुद्गलपरिणामः कर्म परद्रव्योपादानहानशून्यत्वात्, यो हि यस्य परि
नामसंज----ण एव ण ण हि पोग्गल कम्म जीव पुग्गलमग्झ वट्टत वि सव्वकाल । धातुसंज्ञ -- गिण्ह ग्रहणे, मुंच त्यागे, कर करणे, बत्त वर्तने । प्रातिपदिक-न एव न न हि पौद्गल वर्मन् जीव पुद्गलमध्य
प्रयोग-~-प्रत्येक द्रव्य अपने परिण मनसे हो परिणमता है अन्यके परिणामनसे नहीं परिणमता, इस न्यायसे अपने को प्राथयभूत विषयभूत निमित्त भूत परपदार्थों का अकर्ता जानकर परविषयकविकल्पसे निवृत्त होना ३१८४॥
अब पुद्गल परिणाम प्रात्माका कर्म क्यों नहीं है ? इस संदेहको दूर करते हैं[जीवः] जीव [सर्वकालेषु] सदा काल [पुद्गलमध्ये वर्तमानः अपि] पुद्गलके मध्यमें रहता हुना भो [पुद्गलानि कर्मारिण] पौद्गलिक कर्मोको [हि] वास्तवमें न एवं गृह्णाति न तो ग्रहण करता है, [न मुचति] न छोड़ता है, और [न करोति] न करता है।
तात्पर्य---जीव पुद्गलके बीच रहता हुअा भी निश्चयसे न तो पुद्गलोंको ग्रहण करता है और न छोड़ता है।
टोकार्थ- वास्तव में पुद्गलपरिणाम प्रात्माका कर्म नहीं है, क्योंकि वह परद्रव्यके ग्रहण-त्यागसे रहित है 1 जो जिसका परिणमन कराने वाला देखा जाता है वह लोहपिण्डका अग्नि की तरह उसके ग्रहण-त्यागसे रहित नहीं देखा जाता; आत्मा तो तुल्य क्षेत्र में वर्तता हुमा भी परद्रव्यके ग्रहण त्यागसे रहित ही है। इसलिये वह पुद्गलोंको कर्मभावसे परिमाने वाला नहीं है।
प्रसंगविवरण- अनंतरपूर्व गाथामें बताया गया था कि प्रात्माका कर्म (कार्य) अपने स्वका भवन (परिणमन) है, किन्तु पुद्गलका परिणमन आत्माका कार्य नहीं है । अब इस गाथामें 'पुद्गलपरिणाम प्रात्माका कर्म कैसे नहीं है" इस संदेहको दूर किया गया है।
तथ्यप्रकाश--१- प्रात्मा परद्रव्यको न ग्रहण करता, न त्यागता है, इस कारण पुद्गलपरिणाम प्रात्माका कर्म नहीं है । २- प्रात्मा किसी भी भिन्न सत्ता वाले पदार्थको
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