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सहजानन्दशास्त्रमालायां
मण्ये भवनं ततोऽनाकुलत्वलक्षणाक्षयसौख्यलाभः । अतो मोहग्रन्थिभेदादक्षयसोख्यं फलम् । १६५॥ द्विवचन । खवीय क्षपयित्वा-सम्बन्धार्थप्रत्रिया कृदन्त अव्यय । सामण्यो श्रामण्ये-सप्तमी एक० । होज्ज भवेत्-विधौ अन्य पुरुष एक क्रिया । गोरखं सौख्यं अक्खयं अक्षय-द्वितीया एक०। लहदि लभते-वर्तमान अन्य एक नियनिरुक्ति-शाम्यति इति धमणः तस्य भावः श्रामप्यं धमतपसि दे च दिवादि। समास- निहता मोहदुर्ग्रन्धिः येन सः नि०, रागश्च प्रदुषश्च रागद्वेषौ ॥ १६५ ।।
प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व गाया बताया गया था कि शुद्धात्मोपलब्धिसे मोहदीन्थि का विनाश होज्ञा है। अब इस गाथामें बताया गया है कि मोप्रन्थि के भेदसे (विनाशसे) आत्मा राग द्वेष भावको नष्ट कर सुख दुःख में समान होता हुअा अक्षय सुखको प्राप्त करता है।
तथ्यप्रकाश--- (१) शुद्धात्मोपलब्धिके प्रसादसे मोहग्रन्थि नष्ट हो जाती है । (२) मोहनस्थिसे रहित अन्तरात्मा निश्चलानुभूतिरूप वीतराग चारित्रके प्रतिबन्धक राग द्वेष नामक नारित्रमोहको नष्ट कर देता है। (३) राग द्वेषके दूर होनेसे सुख दुःख आदि भावों में समता या जाती है । (४) सुख दुःखमें समान रहने वाले अन्तरात्माके परममाध्यस्थ्यरूप स्वभाववृत्तिरूप श्रामण्य होता है । (५) जिन के परममाध्यस्थ्य भाव हुआ है उनको निजशुद्धात्मसंवेदनसे उत्पन्न परमानंद तृप्ति होनेसे अनाकुलतारूप अक्षय सौख्यका लाभ होता है।
सिद्धान्त.... ( १ ) शुद्धात्मतत्वको भान नासे रागद्वेष दूर होकर सहजात्मविकास होता
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दृष्टि - १- शुद्धभावनापेक्ष शुद्ध द्रध्याथिकान य (२४ब)।
प्रयोग- अविनश्वर सहज प्रानन्दके लाभके लिये अविकारस्वभावी सहजचित्प्रति. भासमात्र अन्तस्तत्व में आत्मत्वका अनुभव करनेका पौरुष करना ।।१६५।।
अब एकाग्रसचेतन जिसका लक्षण है, ऐसा ध्यान प्रात्मामें अशुलता नहीं लाता, यह निश्चित करते हैं---[क्षपितमोहकलुषः] नष्ट किया हैं मोहमल जिसने ऐसा [:] जो प्रात्मा [विषयविरक्तः] विषयसे विरक्त होता हुग्रा [मनः निरुध्य] मनका निरोध करके, [स्वभावे समवस्थितः] स्वभाव में समवस्थित है, [सः] वह [आत्मानं] अात्माको [ध्याता भवति] ध्याने वाला है।
तात्पर्य -निर्मोह जीव स्वभाव में स्थित होता हुअा अात्मध्याता होता है।
टीकार्थ-जिसने मोहमलका क्षय किया है ऐसे आत्माके, मोहमल जिसका मूल है ऐसी पर द्रव्यप्रवृत्तिका प्रभाव होनेसे विषयविरक्तता होती है; उससे, समुद्रके मध्यमत जहाज के पक्षीकी भांति, अधिकरणभूत द्रध्यान्तरोंका अभाव होनेसे जिसे अन्य कोई शरण नहीं रहा है ऐसे मन का निरोध होता है। और मन जिसका मूल है ऐसी चंचलताका विलय होनेके
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