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प्रवचनसार-सप्तदशांगी टीका
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समांगणिं गुणड्ढं कुलरूववयोविमिट्ठमिट्ठदरं । समोहि तं पि पादो पडिच्छ मं चेदि गुगहिदो ॥२०३॥
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श्रम गरी गुणसंयुत, कुलरूपवयोविशिष्ट मुनिप्रिय तर ।
सूरिको नमि अनुग्रह याचे होता अनुगृहोत भि ॥ २०३ ॥
• गणिनं गुणा कुरुपत्रयोविशिष्टमिष्टतरम् । श्रमणैस्तमपि प्रणतः प्रतीच्छ मां चेत्यनुगृहीतः ॥ ततो हि श्रमणार्थी प्रणतोऽनुगृहीतश्च भवति । तथाहि-- प्राचरिताचारितसमस्तवि रतिप्रवृत्ति समानात्मरूपमण्यत्वात् श्रमणं, एवंविवश्रामण्याचरणाचारणप्रवणत्वात् गुणाढ्य', सकल लकोकिकजन निःशङ्कसेवनीयत्वात् बुल क्रमागत क्रौर्यादिदोषवजितत्वाच्च कुलविशिष्टं, अन्तरङ्गशुद्ध रूपानुमापक बहिरङ्गशुद्धरूपत्वात् रूपविशिष्टं शैशववार्धक्य कृतबुद्धिविक्लवत्वाभा नामसंज्ञ – समण गणि गुणड्ढ कुलववयोविसिद्ध इट्टदर समण त पण अम्ह च इदि अणुगहिद । धातुसंज्ञ-पहि इच्छ इच्छायां । प्रातिपदिक-श्रमण गणित् गुणाढ्य कुलरूपवयोविशिष्ट इष्टतर श्रमण तत् अपि प्रगत अस्मद् च इति अनुगृहीत 1 मूलधातु - प्रति इषु इच्छायां । उभयपदविवरण-समण श्रमण गणि गणिनं गुणड्ढं गुणास्य कुलरूववयोविसिद्धं कुलरूपवयोविशिष्ट इउदरं इष्टतर- द्वितीया
,
कुल क्रमागत क्रूरतादि दोषोंसे रहित होनेसे 'कुलविशिष्ट' अंतरंग शुद्ध रूपका अनुमान कराने वाला बहिरंग शुद्धरूप होनेसे 'रूपविशिष्ट ' 'बालकत्व और वृद्धत्वसे होने वाली बुद्धिविक्लवता का प्रभाव होनेसे तथा यौवनोद्रेकको विक्रियासे रहित बुद्धि होनेसे 'वय विशिष्ट' और यथोक्त. श्रामण्यका श्राचरण करने तथा प्राचरण कराने संबंधी पौरुषेय दोषोंको निःशेषतया नष्ट कर देनेसे मुमुक्षुत्रोंके द्वारा प्रत्यन्त मान्य होनेसे 'श्रमणोको अतिइष्ट' गणी व शुद्धात्मतत्त्वको उपलब्धिके साधक आचार्यको 'शुद्धात्मतस्वकी उपलब्धिरूप सिद्धिसे मुझे अनुगृहीत करो' ऐसा haar (श्रामण्यार्थी) निकट जाता हुआ प्रणत होता है । 'इस प्रकार यह तेरी शुद्धात्मतत्त्वकी उपलब्धिरूप सिद्धि' ऐसा कहकर उस गरणीके द्वारा ( वह श्रामण्यार्थी ) प्रार्थित अर्थसे संयुक्त किया जाता हुमा अनुगृहीत होता है ।
प्रसङ्ग विवरण -- अनन्तरपूर्व गाथा में बताया गया जनोंको किस प्रकार संबोध कर श्रामण्यकी प्राप्तिके लिये
था कि श्रामण्यार्थी पुरुष बन्धु गरणी श्रमणके निकट जाता है ।
इस गाथामें यह बताया गया है कि गणी श्रमणके निकट पहुंचकर क्या करता है । नेकगुणविशिष्ट प्राचार्य के निकट पहुंचता है |
तथ्यप्रकाश-- - ( १ ) श्रामण्यार्थी पुरुष (२) आचार्य श्रमण है अर्थात् समस्त द्याचरण व विरक्ति में जैसा समस्त साधुवोंके अन्तर्बाह्य