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प्रवचनसार--सप्तदशाङ्गी टीका अथास्य प्रव्रज्यादायक इब छेदोपस्थापकः परोऽध्यस्तीत्याचार्यविकल्पप्रज्ञापनद्वारेणोपदिशति
लिंगग्गहणे तेसिं गुरु ति पव्वजदायगो होदि । छेदेसूवश्वगा सेसा णिजावगा समणा ॥२१०॥ जिनसे दीक्षा ली है, वे गुरु दीक्षागुरु हैं कहलाते।
छेदीपस्थाप निर्यापक वे या इतर होते ।।२१०॥ लिङ्गग्रहणे तेषां गुरुरिति प्रवज्यादायको भवति । छेदयोरुपस्थापकाः शेषा निधिकाः श्रमणाः ॥२१०॥
___ यतो लिङ्गग्रहणकाले निर्विकल्पसामायिकसंयमप्रतिपादकत्वेन यः किलाचार्यः प्रव्रज्यादायकः स गुरुः, यः पुनरनन्तरं सविकल्पच्छेदोस्थापन संयमप्रतिपादकत्वेन छेदं प्रत्युपस्थापक: ___ नामसंज्ञ-लिंगरगहण त ति पच्चज्जदायग छेद उवट्ठायम सेस णिज्जावग समण। धातुसंज्ञ-हो सत्तायां । प्रातिपदिक-लिङ्गग्रहण तत् गुरु इति प्रव्रज्यादायक छद उबढ़ावग सस णिज्जाबग समण । मुलधातु-भू सत्तायां । उभयपदविवरण-लिंगग्गहो लिङ्गग्रहरणे-सप्तमी एक । तेसिं तेषां-षष्ठी एका ।
अब श्रमणके प्रव्रज्यादायककी भांति छेदोपस्थापक दुसरा भी होता है यह, प्राचार्य विकल्पप्रज्ञापन द्वारा उपदेश करते हैं - तेषां] मुनियोंका [लिंगग्रहणे] लिंगग्रहण के समय
प्रवज्यादायकः भवति] जो दीक्षा दायक है वह तो [गुरुः इति] दीक्षा गुरु है, और [छेदयोः उपस्थापका:] जो छेदद्वयमें उपस्थापक हैं [शेषाः श्रमणाः] वे शेष श्रमणा [निर्यापकाः] नियपिक गुरु हैं।
तात्पर्य -दीक्षागुरुनिर्यापक गुरु भो होते हैं, किन्तु दीक्षागुरुके प्रभाव में निर्यापक गुरु दूसरे कोई श्रमण हो सकते हैं।
टीकार्य-..--जो प्राचार्य लिंगग्रहणके समय निर्विकल्प सामायिकसयमके प्रतिपादक होने से जो प्राचार्य प्रव्रज्यादायक हैं वे गुरु हैं; और फिर तदनन्तर सविकल्प छेदोपस्थापना संयमके प्रतिपादक होनेसे छेदके प्रति उपस्थापक हैं वे निर्यापक हैं; उसी प्रकार जो भी छिन्न संयमके प्रतिसंधानको विधिके प्रतिपादक होनेसे छेद होनेपर उपस्थापक हैं, वे भी निर्यापक ही हैं। इसलिये छैदोपस्थापक, दूसरे भी होते हैं । Hijr" प्रसङ्कविवरण.-----.अनन्तरपूर्व गाथाद्वयमें सामायिकसंयम व छेदोपस्थापनासंयमका मौलिक निर्देश किया गया था। अब इस गाथामें दोक्षादायक व छेदोपस्थापक प्राचार्य श्रमणों
के उपकारका निर्देश किया गया है। Male तथ्यप्रकाश-१- जो दीक्षा देने वाले श्रमण हैं वे प्रव्रज्यादायक कहलाते हैं । २
प्रवज्यादायक गुरुने दीक्षामहरग कालमें शिष्यको निर्विकल्प सामायिकसंयमका उपदेश किया
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