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प्रवचनसार -- सप्तदशाङ्गी टीका
श्यकमवेलक्यमस्नानं क्षितिशयनमदन्तधावनं स्थितिभोजन से कभक्तश्चैवं एते निर्विकल्पसामायि hiroeपत्वात् श्रमणानां मूलगुरणा एव । तेषु यदा निविकल्पसामायिकसंयमाधिरूढत्वेनानभ्यस्त विकल्पत्वात्प्रमाद्यति तदा केवलकल्याणमात्रार्थिनः कुण्डलवलांगुलीयादिपरिग्रहः किल उभयपद विवरण- वदसमिदिदियरोधो ब्रतसमितीन्द्रियराधः श्रोचावस्तयं लोखा वश्यकं अचेलं अण्हाणं अस्मानं खिदिसणं क्षितिशयनं अवंतवणं अदन्तधावनं ठिदिभोगं स्थितिभोजनं एगभक्तं एकभक्तं - प्रथमा एकवचन । च खलु-अव्यय । एदे एते मूलगुणा मूलगुणा:- प्रथमा बहुवचन । समणाणं श्रमणानां षष्ठी
तात्पर्य - मूल गुणों में प्रमाद होनेपर श्रमण छेदोपस्थापनाका धारण करता है ।
टीकार्थ -- सर्व सावद्ययोगके प्रत्याख्यानस्वरूप एक महाव्रतको व्यक्तियाँ होनेसे हिंसा, असत्य, चोरी, प्रब्रह्म और परिग्रहकी विरतिस्वरूप पांच प्रकारके व्रत तथा उसकी परिकरभूत पाँच प्रकारकी समिति, पाँच प्रकारका इन्द्रियरोध, लोच, छह प्रकारके ग्रावश्यक, अचेलकत्व, अस्नान, भूमिशयन, प्रदंतधावन अर्थात् दतौन नहीं करना, खड़े खड़े भोजन, और एक बार प्राहार लेना; इस प्रकार ये निर्विकल्प सामायिकसंयमके भेद होनेसे श्रमणोंके मूल गुण नहीं हैं । जब श्रमण निर्विकल्प सामायिक संयम में श्रारूढ़ता के कारण मूलगुरारूप विकल्पोंका भ्यास नहीं है जहाँ ऐसी दशा में प्रमाद करता है, तब 'केवल सुवर्णमात्रके अर्थीको कुण्डल, कंकण, अंगूठी ग्रादिको ग्रहण करना श्रेय है, किन्तु ऐसा नहीं है कि कुण्डल इत्यादिका ग्रहण कभी न करके सर्वथा स्वर्णको हो प्राप्ति करना ही श्रेय है' ऐसा विचार करके वह मूल गुणों में विकल्परूपसे (भेदरूपसे ) अपनेको स्थापित करता हुआ छेदोपस्थापक होता है ।
प्रसंग विवरण - प्रनन्तरपूर्व माथा में बताया गया था कि साधक कैसे श्रामण्य की प्राप्ति करता है । अब इस गाथा में बताया गया है कि सतत सामायिक संयममें ग्रारूढ़ हुआ भा श्रमण कभी (कदाचित् ) छेदोपस्थापना के योग्य होता है ।
तथ्यप्रकाश - १ - निविकल्प सामायिकसंयम के विकल्प श्रम के मूल गुख कहे जाते । २- वास्तव में श्रमरणोंका मूल गुण यह एक ही है- निर्विकल्प सामायिक संयम । ३-निविकल्प सामायिक संयम में संज्वलनचतुष्क के विपाकके कारण सतत नहीं रहा जानेपर श्रमण freeपरूप संयमको पालता है । ४- प्रभेदरूपसे संयम पालना सामायिक संयम है । ५भेदरूपसे संयमपालन छेदोपस्थापना संयम है । ६- निविकल्पसामायिक संयम में अखण्ड ज्ञायकस्वभाव सहजपरमात्मतत्वकी उपासना रहती है। ( ७ ) छेदोपस्थापना संयम में अहिंसामहाव्रत सत्यमहाव्रात आदि नाना रूपों में संयमपालन होता है । भेदसंयम में कुछ दोष या च्युति
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