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प्रवचनसार-सप्तदशांनो टोका क्षाचार्येण तदादानविधान प्रतिपादकत्वेन व्यवहारतो दीयमानत्वावृत्तमादान क्रियया संभाव्य तन्मयो भवति । नतो भाव्यभावकभावप्रवृत्तेतरेतरसंबलन प्रत्यस्तमितस्वपरविभामत्वेन दत्तसई. स्वमूलोत्तर पर मगरुन मस्क्रिपया संभाव्य भावस्त ववन्दनामयो भवति । ततः सर्वसावध योगप्रत्यास्यानलक्षणक महावतश्रवणात्मन! श्रु तज्ञानेन ममय भवन्तमात्मानं जानन सामायिक मधिरोहति 1 सतः प्रतिक्रमणालोचन प्रत्याख्यानलक्षणक्रियाश्रवणात्मना श्रु तज्ञानेन कालिककर्मभ्यो विविच्यमानमात्मानं जानन तीतप्रत्युपन्लानुपस्थित कायवाङ्मनःकर्मविविक्तत्वमधिरोहति । ततः समस्तावद्यमायतनं कायमुत्सृजय यथाजातरूपं स्वरूप मेकमेकाग्रेणालम्ब्य व्यवतिष्ठमान उपस्थितो भवति, उपस्थितस्तु सर्वत्र समदृष्टित्वासाक्षाच्छमयो भवति ॥२०७।। नमस्कृत्य सोच्चा श्रुत्वा सम्बन्धार्थप्रक्रिया । तं लिग लिङ्ग तं सबदं सन्नता किरिय क्रियां-द्वितीया एकवचन । पि अपि-अव्यय । गुरुणा-तृ० एक० । परमेण-तृक ए। उवादिदो उपस्थितः सो स: समणो श्रमण:- एक होदि भवति-वर्तमान अत्यः एकः क्रिया। निरुक्ति- गृगाति उपदिशति धर्म इति गुरुः गिरीत अनानं इति गुरुः गृ शब्दे क्यादि गु निगरो तुदादि में विज्ञान चुरादि, गीर्यते स्तूबते देवा. दिभिः इति गुरुः ।।२०७॥
तथ्यप्रकाश---(१) श्रामण्यार्थीन परमगुरु अहंन्त देवसे व तत्काल दीक्षाचार्यसे यघा. जातरूपताके नमक बहिरङ्ग व अन्तरङ्ग लिङ्गको ग्रहण किया । (२) दीक्षा ग्रहण के विधान का प्रतिपादकपना होनेसे व्यवहारतः दोभाका देना कहलाता है। (३) दीयमान लिङ्गोंको अङ्गीकार करके यह साधु सभक्ति शुद्ध भावों में तन्मय होता है । (४) फिर पाराध्य पारा. धक भावकी शुद्धता द्वारा स्वपरविभाग शान्त करके अभेद अाराधनासे परमगुरुको सम्मानित कर यह साधु भावस्तवमय होता है । (५) फिर उपास्य उपासक भावकी शुद्धता द्वारा स्वपर “विभाग शान्त करके भेदोपासनासे परमगुरुको भावनमस्कार क्रियासे सम्मानितकर यह साधु भाववन्दनामय होता है। (६) फिर सर्वसावध योगके त्यागरूप महावतके भावोंके श्रवणसे अनेक श्रुतियोंके अनुभवसे यह साधु स्वाध्यायमय होता है । (७) सर्वसावधात्यागस्वरूप महा. प्रतादि प्रक्रियाके श्रवणके समय श्रु ल ज्ञान द्वारा म्बसमयमें होने वाले शुद्धात्मत्वको अनुभवता “हुना यह साधु साम्यभावको प्राप्त होता है । (6) फिर प्रतिक्रमण] प्रत्याख्यान ग्रालचिनविष. 'यक श्रुतज्ञान द्वारा कालिक कर्मों से रहिस महज झानमात्र शुद्ध अन्तस्तत्वको अनुभवता हे । ' (8) फिर समस्त अवध के कारणभूत काय का विकल्प पूर्णतया त्यागकर यथाजात प्रात्मस्वरूप है.का प्राश्रय कर प्रात्मस्थ होता है । (१०) प्रात्माके निकट उपस्थित होता हुमा यह साधक
समष्टि होनेसे साक्षात् श्रमण होता है। : सिद्धान्त-(२) श्रमण प्रात्माके शाश्वत सहजस्वरूपको निरखता रहता है। (२) श्रमण शुद्धात्मस्वरूपकी भावनासे निर्विकार हो जाता है ।
नामावलि
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