Book Title: Pravachansara Saptadashangi Tika
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

View full book text
Previous | Next

Page 414
________________ सहजानन्दशास्त्रमालायां कायचेष्टाया। कथंचिद्बहिरंगच्छेदो जायते तदा तस्य सर्वधान्त रंगच्छेदवजितत्वादालोचन पूर्विक या क्रिययैव प्रतीकारः । यदा तु स एवोपयोगाधिकृत च्छेदत्वेन साक्षाच्छेद एवोपयुक्तो भवति तदा जिनोदितव्यवहारविधिविदग्ध मणाश्रययालोचनपूर्व तदुपदिष्टानुष्ठानेन प्रतिसंधानम् ।। २११-२१२ ॥ ४०० लोचने, का करणे । प्रातिपदिक-प्रयता समारच्या छंद श्रमण कायचेष्टा यदि तत् पुनर् आलोचना पूर्विका क्रिया छेदोपयुक्त श्रमण श्रमण व्यवहारिन् जिनमत उपदिष्ट तत् कर्तव्य । मूलधातु-जेनी प्रादुर्भावि, आ बदल गतौ, आलोचृ भाषार्थः, डुकृञ करणे । उभयपद विवरण- पयदम्हि प्रयतायां समारद्धं समारब्धायां कायम्ह कायचेष्टायां-सप्तमी एकवचन । छेदो छेदः - प्रथमा एक० । समणस्स श्रमणस्य तस्स तस्यषष्ठी एक० । जायदि जायते वर्त० अन्य० एक० क्रिया । जदि यदि पुणो पुनः अव्यय । आलोयणपुध्विया आलोचनपूर्विका किरिया क्रिया-प्र० ए० । छेदुवजुत्ता छेदोपयुक्तः समणो श्रमण:- प्रथमा एक० । समणं श्रमणं ववहारिणं व्यवहारिणं द्वि० एक० जिणमद म्हि जिनमते सप्तमी एक० । आसेज्जा आसाद्य आ लोचित्ता आलोच्य सम्बन्धार्थप्रक्रिया कृ० अव्यय । उर्वादिट्टु उपदिष्टं प्र० ए० । कार्यव्वं कर्तव्यम् प्रथमा: एकवचन कृदन्त क्रिया । निरुक्ति आ लोचनं आलोचना श्राम्यति इति श्रमणः श्रभु तपसि खेदे च चीयते उपचीयते इति कायः, चेष्टनं चेष्टा । समास - ( कायस्य चेष्टा कायचेष्टा तस्यां कायचेष्टायां छे उपयुक्तः छेदोपयुक्तः ।।२११-२१२।। रङ्गसंयमच्छेद । २- कायचेष्टामात्र से होने वाला संयमच्छेद बहिरङ्ग छेद है । : ३- उपयोगसम्बंधी छेद अन्तरङ्ग छेद है । ४- सही उपयोग वाले श्रमण के समिति में यत्नपूर्वक प्रवृत्तिकरनेपर भी शरीरचेष्टा से कुछ बहिरंग छेद हुआ हो तो उसका आलोचनासे ही प्रतीकार हो जाता है । ५- प्रालोचनासे हो बहिरंग छेदका प्रतीकार हो जानेका कारण यह है कि वहाँ अन्तरङ्ग छेद याने उपयोगसम्बन्धी त्रुटि बिल्कुल नहीं हुई है । ६- अन्तरङ्ग छेद होनेपर श्रमणके दोषका प्रतीकार प्रायश्चित्तशास्त्र के ज्ञाता निर्यापकाचार्यसे निष्कपट झालोचना करके - जो प्रतिक्रमण प्रायश्चित्त मिले उसके अनुष्ठान से होगा, क्योंकि वहाँ श्रमणने निर्विकार स्वसंवे दनभावनासे च्युत होनेका साक्षात् दोष किया था । सिद्धान्त -- ( १ ) निर्दोष चारित्रका पालन मुमुक्षुवोंकी मोक्षमार्ग गितिका कारण है 1: दृष्टि - १ क्रियानय, ज्ञाननय ( १६३, १६४) । प्रयोग - स्वस्थ भावनासे च्युत होनेपर निर्विकारस्वसंवेदन भावना के अनुकूल प्रायश्चित्त: करके निर्विकल्प सामायिक संयममें लगना ।।२११-२१२।। अब श्रामण्यके छेदका प्रायतन होनेसे परद्रव्यका सम्बन्ध निषेध करने योग्य हैं, ऐसा उपदेश करते हैं -- [ अधिवासे] श्रात्मवास में अथवा गुरुग्रोंके सहवास में [वा ] प्रथमा [विवासे ]:yeri fभन्न वासमें बसता हुआ [ नित्यं ] सदा [निबंधान्] परद्रव्यसम्बन्धों को [ परिहरभाणः]

Loading...

Page Navigation
1 ... 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494 495 496 497 498 499 500 501 502 503 504 505 506 507 508 509 510 511 512 513 514 515 516 517 518 519 520 521 522 523 524 525 526 527 528