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. प्रवचनसार--सप्तदशाङ्गो टोका पाच हिंसा । अत: श्रमणस्याशुद्धोपयोगाविनाभाविनी शयनासनस्थानचंक्रमणादिष्वप्रयता या
याँ सा खलु तस्य सर्वकालमेव संतानवाहिनी छेदानान्तरभूता हिंसैव ।।२१६॥ पदविवरण-अपयत्ता अप्रयता चरिया चर्या हिंसा सा-प्र० एक० । अथणासमठाणचंकमादीसु शयनासनस्थानचङ मणादि-सप्तमी वह वचन । समणरस थमस्थ-बष्टी एकवचन । सव्वकाले-सप्तमी एकः |
यमंता-एक मदा मता--प्रथमा एकवचन कृदन्त क्रियानि इति वा-अव्यय । निरुक्ति चरणं चर्या चर- यत् । टाप, पुन: पुनः क्रमणं चङ क्रमगं ऋग+ ग्रङ+ ल्युट् क्रम पादविक्षेपे । समासशयन आसन स्थालं चंक्रमणं आदिः येषां से शयनासनस्थानचा क्रमणाध्यः तेषु श० ।।२१६॥ और यह संयमका छेद है । (२) असावधानीसे प्रवृत्ति करने में अशुभोपयोग बना रहता है जिससे लगातार हिंसा चलती है । (३) अप्रयत चर्या में भावहिंसा होनेसे अपनी हिंसा है, पर जीवका विधात संभव होनेसे परहिंसा भी है । (४) अप्रयत चर्या शुद्धोपयोग हुए बिना नहीं होती और अशुद्धोपयोग ही संयमका छेद है । (५) शुद्धोपयोग ही तो परम श्रामण्य है उसका भंग अशुद्धोपयोगसे होता है अतः अशुद्धोपयोग अन्तरङ्ग छेद है । (६) अशुद्धोपयोग में श्रामण्यका घात होता है अतः अशुद्धोपयोग हिंसा है । (७) बाह्य व्यापार रूप शत्रुयों को तो श्रमणने पहिले हो हटा दिया था । (८) जब शरीर साथ लगा है तब शयन प्रासन आहार विहार शुद्धात्मद्रव्यप्रसिद्धि के अविरुद्ध करना आवश्यक हो जाता है । (६) शयनासनादि
अनिवार्य कर्तव्यों में लगाव न रखना, कषाय न जगाना इस वृत्तिमें श्रामण्यका विघात न (होगा । (१०) संयमच्छेद न होनेसे आत्मविकासको प्रगति होती है ।
सिद्धान्त ----(१) निर्विकल्प सामायिक संयमका साधक समस्त परद्रव्योंके प्रतिबन्धका प्रतिषेध है।
दृष्टि-- १- प्रतिषेधक शुद्ध नय (४६) ।
प्रयोग–अन्तरङ्ग कषायशत्रुसे बचे रहनेके लिये परद्रव्यका प्रतिबन्ध (विकल्प) त्यागकर संक्लेशरहित होना ॥२१६।।
___ अब अन्तरंग और बहिरंग रूपसे छेदको द्विविधता बतलाते हैं- [जोवः] जीव प्रियतां वा जीवतु वा मरे या जिये, अयताचारस्य] अप्रयत प्राचार वालेके [हिंसा] हिंसा निश्चिता] निश्चित है, [समितस्य प्रयतस्य] शुद्धात्मस्वरूपके अभिमुख साधनामें यत्नशील
श्रमणके [हिंसामात्रेण] बहिरंग हिंसामात्रसे [बन्धः] बंध [नास्ति नहीं है । EIR तात्पर्य----प्रमत्तयोग न होनेसे श्रमणके हिंसापाप नहीं होता ।
टोकार्थ-अशुद्धोपयोग अंतरंग छेद है; परप्राणोंका घात बहिरंगछेद है । उनमें अंत. Em गछेद ही विशेष बलवान है, बहिरंगछेद नहीं; क्योंकि परप्राणोंके व्यपरोपका सद्भाव हो या EL सद्भाव, जो अशुद्धोपयोगके बिना नहीं होता ऐसे अप्रयत आचारसे प्रसिद्ध होने वाला अशु