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प्रवचनसार-सप्तदशांगो टीका
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विरोधेन शुद्धात्मद्रव्यनीरंगनिस्त रंगविश्रान्तिसुत्रणानुसारेण प्रवर्तमाने क्षपणे नौरंगनिस्तरंगान्त. रंगद्रव्यप्रसिद्धयर्थमध्यास्यमाने गिरीन्द्रकन्दरप्रभृतावावसथे यथोक्तशरीरवृत्तिहेतुमार्गणार्थमारभ्यमाणे विहारकर्मणि श्रामण्यपर्यायसहकारिकारयत्वेनाप्रतिषिध्यमाने केवलदेहमा उपधी अन्योस्यबोध्यबोधकभावमात्रेण कथंचित्परिचिते श्रमणे शब्दपुद्गलोल्लाससंकलनकश्मलितचिद्धित्तिभागायो शुत्तात्मद्रव्यविरुद्धोयां कथायां चतेष्वपि तद्विकल्पाचित्रितचित्तभित्तितया प्रतिषेध्यः प्रतिबन्धः ॥२१५।। सये विहारे उवधिम्हि उपधौ समणम्हि श्रमरणे विकम्हि विकथायां-सप्तमी एकवचन । या ण न पुणों पुनः अव्यय । पिबद्धं निबद्धं-द्वितीया एक० 1 इन्छदि इच्छति-वर्तमान अन्य० एक० किया । निरुक्ति- आ वसनं यत्र तत् आवसथं बस + अथच, उपधानं उपधिः उप था। कि ।। २१५ ।। है ऐसे अन्य मुनिमें, और (७) शब्दरूप पुद्गलपर्यायके साथ सम्बन्धसे जिसमें चतन्यरूपी भित्तिका भाग मलिन होता है, ऐसी शुद्धातमद्रव्यमें विरुद्ध कथामें भी प्रतिबन्ध त्यागने योग्य है क्योंकि उनके विकल्पोंसे भी चित्तभूमि चित्रित हो जाती है।
प्रसंगविवरण-मनन्तरपूर्व गाथामें स्वद्रव्यप्रतिबन्धको परिपूर्ण श्रामण्यका प्रायतन बताया गया था । अब इस गाभ्यामें बताया गया है कि श्रमण किसी भी प्रसंगमें सुक्ष्म द्रव्यका प्रतिबंध दूर करे।
तथ्यप्रकाश-(१) प्रागमविरुद्ध आहार विहारादि तो मुनिके कभी होता ही नहीं है। (२) परिपूर्ण श्रामण्यकी सिद्धिके लिये श्रमणको प्रागमोक्त आहारविहारावासादिका भी विकल्प न रखना चाहिये । (३) श्रामण्य पर्यायके सहकारी कारणभूत शरीरका टिकाव बनाने के लिये शुद्ध प्राहार ग्रहण करना विधेय है । (४) श्रामण्यपर्यायका सहकारी कारणभूत शरीर को टिकाव जिससे न मिटे ऐसा वह उपवास विधेय है जो शुद्धात्मद्रव्यमें लीनता करानेका अनुसारी हो । (५) अविकार अन्तस्तत्वको सिद्धिके लिये पर्वत गुफा आदि निवास स्थानों में रहना विधेय है । (६) शुद्धात्मद्रव्यको साधना बनाये रहने के लिये किया जाने वाला प्रायोजतिक विहार विधेय है । (७) श्रामण्य पर्यायका सहकारी कारणभूत होनेसे केवल देहमात्र लपाधि अथवा दिगम्बर वेश प्रतिषिध्यमान नहीं है । (८) तत्त्व समझने व समझानेके लिये बमण जनोंका कथंचित परिचय करना सत्संग करना विधेय है । (६) विधेय कर्तव्योंमें भी प्रतिबन्ध लगाव) करना निषिद्ध है, क्योंकि उनके विकल्पोंसे उपयोग उपरक्त हो जाता है जिससे अन्तरङ्ग छेद हो जाता है। (१०) श्रमण जनोंको शुद्धात्मद्रव्यविरुद्ध विकथायें तो कभी पड़ना ही न चाहिये । (११) श्रमप श्रमणजनोंके निकट रहता हुआ भी सूक्ष्म परद्रय
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