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सहजानन्दशास्त्रमालायां
त्वेन गुरूनधिकृत्य वासे वा गुरुभ्यो विशिष्टे वासे वा नित्यमेव प्रतिषेधयन् परद्रव्यप्रतिबन्धान श्रामध्ये छेदविहीनो भूत्वा श्रमणो वर्तताम् ॥२१३॥
वचन | विदु विहरतु आज्ञार्थी अन्य पुरुष एक क्रिया । व वाणिज्वं नित्यं अव्यय । भवीय भूत्वासम्बन्धप्रक्रिया कृदन्त अव्यय । णिबंधाणि निबन्धान् द्वितीया बहुवचन । निरुक्ति अधिवस्यते यत्रः । स अधिसः यस निवासे । समास-छेदेन विहीनः छेदविहीनः ॥२४३॥
साधक ग्रात्मनिवास के प्रयोजनसे गुरुकुलवास में, सत्संग में अथवा शुद्ध एकान्त में रहना चाहिये । (५) मुमुक्षुत्रों को ऐसी वृत्ति रखना चाहिये जिससे श्रामण्य में कुछ भी भंग न पड़े । ( ६ ) श्राarunt सिद्धिके लिये मुमुक्षु अपने श्रात्मामें ही विहार करे । ( ७ ) परद्रव्यका सम्बन्ध हटाने के लिये मुमुक्षु अन्यस्थानपर भी बिहार करे । (८) श्रमण गुरुके समीप बनकर सभक्ति शा स्वाध्ययन करे। ( ६ ) शास्त्राध्ययन करके गुरुको आज्ञासे अपने ही समान शोलवंत तपस्वी जनोंके साथ विहार करे । (१०) विहारकाल में भेदरत्नत्रय व प्रभेवरत्नवकी भावना व वृत्ति करे । ( ११ ) विहारकाल में तपश्चरण, शास्त्रमनन, श्रात्मबलप्रकाशन, एकत्वध्यान क संतोषवर्तनको वृत्ति रखे । (१२) विहारकाल में तीर्थंकर गणधर आदि महापुरुषोंकी चारित्रों का विचार बनाये रहे । (१३) विहारकाल में भव्य जीवोंको सदुपदेश देकर विशुद्ध श्रानन्दउत्पन्न कराता हुआ आत्मदृष्टिसे प्रसन्न (निर्मल) रहे । (१४) ग्रात्मविहारकी प्रमुखता से श्रामण्यसिद्धि बनाये रहने में कल्याण है । (१५) उपरागरहित उपयोगका स्वच्छ बना रहना ही वास्तव में श्रामण्य है ।
सिद्धान्त - ( १ ) उपाधिके परिहारसे आत्माको शुद्ध परिणति होती हैं । दृष्टि - १ - उपाध्यभावापेक्ष शुद्ध द्रव्याथिकतय (२४अ) ।
प्रयोग- श्रामण्यको सिद्धिके लिये अपना अपने आत्मामें अवस्थान बनाये रहना अत्यावश्यक हैं, एतदर्थ गुरुसत्संग में रहे, शुद्ध एकान्त में रहे व गुणभावनासहित विहार करे
॥२१३
व श्रामण्यकी परिपूर्णताका प्रायतन होनेसे स्वद्रव्य में ही सम्बन्ध करना योग्य है, ऐसा उपदेश करते हैं- [ नित्यं ] सदा [ ज्ञानदर्शनमुखे ] ज्ञानमें और दर्शनादिमें [ निबद्धः ] प्रतिबद्ध [च] तथा [ मूलगुणेषु प्रयतः ] मूल गुणों में प्रयत्नशील [ यः श्रमणः ] जो श्रमण [ चरति ] विचरण करता है, [सः ] वह [ परिपूर्णश्रामण्यः ] परिपूर्ण श्रामण्यवान है ।
तात्पर्य -- मूलगुणा चरण में प्रयत्नशील स्वरूपाभिमुख मुनि पूर्ण मुनित्वसंपन्न है. टीकार्य - एक स्वद्रव्यप्रतिबंध ही उपयोगका शोधक होनेसे, शुद्ध उपयोगरूप श्रामण्य